अमितगति कृत श्रावकाचार में आहार दान का महत्व बताते हुए कहा है कि जैसे सूर्य के बिना दिन नही हो सकता है वैसे ही आहार के बिना शरीर नहीं चल सकता है। जो आहार दान देता है तो वह सिर्फ आहार दान नहीं बल्कि तप, दया ,धर्म, संयम, नियम आदि सभी देता है, क्योंकि यह सब शरीर से ही होते हैं। जो भक्ति से साधुओं-त्यागियों को आहार देता है उसके घर में मनोवांछित और प्रशंसनीय भोजन सामग्री कभी समाप्त नहीं होती है। जो आहार दान देता है वह समस्त कल्याणओं का अधिकारी होता है ठीक वैसे ही जैसे कि समुद्र समस्त जल का अधिकारी होता है। आहार दान देने वाले धन्य मनुष्य के पास सभी प्रकार की लक्ष्मी अपने आप आ जाती है। जैसे समस्त नदियां समुद्र को प्राप्त होती है उसी प्रकार तीर्थंकर, चक्रवर्ती, अर्ध चक्रवर्ती आदि की सम्पदा आहार देने वाले मनुष्य को मिलती है। जैसे जनता को आनन्द देने वाली चंद्रमा की किरणें कभी क्षीण नहीं होती है, उसी प्रकार आहार देने वाले की सम्पदा (धन) समाप्त नहीं होती है। पूरी पृथ्वी का दान देने का जो फल है और प्रासुक आहार दान देने का जो फल है इन दोनों में घास की नोक पर रखी पानी की बून्द और समुद्र जल के समान महान अंतर है। आहार दान के प्रभाव से वह जीव जहां भी जन्म लेता है वहां पर भोगों से रहित नही होता है अर्थात उसे भोग की समस्त सामग्री मिलती है। आहार दान को देने से मनुष्य को जो फल प्राप्त होता है वह कोटी स्वर्ण के दान से भी प्राप्त नहीं होता है। जैसे संसार में केवलज्ञान से उत्तम दूसरा ज्ञान नहीं है, निर्वाण के सुख से श्रेष्ठ सुख नहीं है, वैसे ही आहार दान से उत्तम कोई दान नहीं है।
अनंत सागर
श्रावक
उनंचासवां भाग
07 अप्रैल 2021, बुधवार, भीलूड़ा (राजस्थान)
Give a Reply