आज समाज, पंथ और संत में बंट गया है। इसी कारण धार्मिक, सामाजिक विकास थम सा गया है। धर्म करते हुए भी धर्म का फल नही मिल पा रहा है। हम निर्णय नहीं कर पा रहे हैं कि सही क्या है और गलत क्या है। इसका कारण है कि सामाजिक स्तर पर और व्यक्तिगत रूप से समाज में स्वाध्याय की परंपरा लुप्त सी हो गई है।
स्वाध्याय का मतलब प्राचीन आचार्यो द्वारा लिखित शास्त्रों के अध्ययन से है। स्वाध्याय की कमी होने से विवाद बढ़ते जाते हैं। एक दूसरे के प्रति द्वेष हो जाता है। यहां तक कि धर्म की क्रिया देखकर भी द्वेष, कषाय के भाव जागृत हो जाते हैं। स्वाध्याय की कमी से साधुओं के प्रति भी सम्मान के भाव और आदर, सत्कार में कमी आ जाती है। स्वाध्याय की कमी से हम दिगम्बर जैन ही न जाने कितने भागों में बंट गए हैं।
स्वाध्याय की कमी के कारण ही हम धार्मिक कर्मकांड में उलझकर आत्मसाधना के मूल सिद्धांतों को भूल गए हैं। स्वाध्याय की कमी से आचरण भी व्यवस्थित नहीं हो पाता है। सब से बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि स्वाध्याय की कमी से हम अपनी संस्कृति और संस्कारों को नहीं पहचान पा रहे हैं। हमें यही नहीं पता कि किस कार्य को करने से, किस चीज को खाने से, किस बात को बोलने से, किस तरह के विचार को सोचने से, किस तरह के कपड़े पहनने से जीव हिंसा होगी। हमें यह भी ज्ञान नहीं है कि हम जो धर्म की क्रिया कर रहे हैं वह सही है या गलत, बस हम किए जा रहे हैं।
और भी बहुत कुछ है जो स्वाध्याय के बिना अधूरा है। तो… चले एक अभियान छेड़ें और समाज में स्वाध्याय की पररम्परा को पुनः जीवंत करें… पर ध्यान रखना स्वाध्याय का मतलब प्राचीन आचार्यों के शास्त्रों से है क्योंकि धर्म के वास्तविक स्वरूप का पता वहीं से चलेगा।
अनंत सागर
अंतर्मुखी के दिल की बात
पचासवां भाग
15 मार्च 2021, सोमवार, भीलूड़ा (राजस्थान)
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