जीवन में दुख की अनुभूति तभी कम होती है जब व्यक्ति आत्मचिंतन करता है। पद्मपुराण पर्व 83 में भरत और राम की चर्चा में भरत के कथन को अनुभव कीजिए।
भरत, राम से कहते हैं कि जिस राज्यलक्ष्मी का त्यागकर और उत्तम तपकर वीर मनुष्य मोक्ष को प्राप्त हुए हैं, उस राज्यलक्ष्मी का मैं त्याग करना चाहता हूं। काम और अर्थ चंचल है, अत्यंत मूर्ख लोगों के द्वारा सेवित हैं और ज्ञानीजनों के लिए द्वेष के पात्र हैं। यह नश्वर भोग स्वर्गलोक के समान हो अथवा समुद्र की उपमा को धारण करने वाला हो तो भी मेरी इसमें तृष्णा नहीं है। हे राम! यह सब अत्यंत भयंकर है, मृत्युरूपी पाताल तक व्याप्त है,जन्मरूपी कल्लोलों से युक्त है जिसमें रति और रतिरूपी बड़ी- बड़ी लहरें उठ रही हैं, इसमें राग-द्वेष रूपी बड़े-बड़े मगरमच्छ हैं। इस तरह के इस संसार में मेरी कोई रुचि नहीं है। हे राजन! नाना योनियों में बार- बार भ्रमण करता हुआ मैं गर्भवासादि के दुःसह दुख प्राप्त कर थक गया हूं।
अनंत सागर
अंतर्भाव
28 मई 2021, शुक्रवार
भीलूड़ा (राज.)
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