सम्यकदर्शन के आठ अंगों में से चौथे अंग अमूढदृष्टि अंग में प्रसिद्ध व्यक्तित्व की कहानी
विजयार्थ पर्वत की दक्षिण श्रेणी संबंधी मेघकूट नगर का राजा चन्द्रप्रभ राज्य देकर, परोपकार तथा वन्दना-भक्ति के लिये कुछ विद्याओं को धारण करता हुआ दक्षिण मथुरा गया और वहां गुप्ताचार्य के समीप क्षुल्लक हो गया। एक समय उत्तर मथुरा की ओर जाते समय उन्होंने गुप्ताचार्य से पूछा कि क्या किसी से कुछ कहना है। गुप्ताचार्य ने कहा कि सुव्रत मुनि को वंदना और वरुण-राजा की महारानी रेवती के लिये आशीर्वाद कहने के योग्य है। क्षुल्लक ने कहा कि वहां ग्यारह अंग के धारक भव्यसेनाचार्य तथा अन्य धर्मात्मा लोग भी रहते हैं, उनका आप नाम भी नहीं लेते हैं। उसमें कुछ कारण अवश्य होगा, ऐसा विचार कर क्षुल्लक उत्तर मथुरा चले गए। वहां जाकर सुव्रत मुनि के लिए गुप्ताचार्य की वन्दना कही। सुव्रत मुनि ने परम वात्सल्य भाव दिखलाया।
भव्यसेन की वसतिका में पहुँचने पर भव्यसेन ने उनसे संभाषण भी नहीं किया। भव्यसेन, शौच के लिये बाहर जा रहे थे, क्षुल्लक भी उनका कमण्डलु लेकर उनके साथ चले गए। विक्रिया से आगे ऐसा मार्ग दिखाया जो कि हरे-हरे कोमल तृणों के अंकुरों से आच्छादित था। उस मार्ग को देखकर क्षुल्लक ने कहा कि आगम में ये सब जीव कहे गये हैं। भव्यसेन आगम पर अश्रद्धा दिखाते हुए तृणों पर चले गये। क्षुल्लक ने विक्रिया से कमण्डलु का पानी सुखा दिया। जब शुद्धि का समय आया, तब कमण्डलु में पानी नहीं था तथा कहीं कोई विक्रिया भी नहीं दिखाई देती रही थी। तदनन्तर उन्होंने स्वच्छ सरोवर में उत्तम मिट्टी से शुद्धि की। इन सब क्रियाओं से उन्हें मिथ्यादृष्टि जानकर क्षुल्लक ने भव्यसेन का नाम अभव्यसेन रख दिया।
दूसरे दिन पूर्व दिशा में पद्मासन पर स्थित, चारमुखों से सहित, यज्ञोपवीत आदि युक्त तथा देव और दानवों से वन्दित ब्रह्मा का रूप दिखाया। राजा तथा भव्यसेन आदि लोग वहाँ गये परन्तु रेवती रानी लोगों नहीं गई। इसी प्रकार दक्षिण दिशा में गरुड़ के ऊपर आरूढ़, चार भुजाओं से सहित तथा गदा, शंख आदि के धारक नारायण का रूप दिखाया। पश्चिम दिशा में बैल पर आरूढ़ तथा अर्ध चन्द्र, जटाजूट, पार्वती और गणों से सहित शंकर का रूप दिखाया। उत्तर दिशा में समवसरण के मध्य में आठ प्रातिहार्यों से सहित, सुर, नर, विद्याधर और मुनियों के समूह से विद्यमान, पर्यकासन से स्थित तीर्थंकर देवता का रूप दिखाया। वहाँ सब लोग गये, परन्तु रेवती रानी नहीं गई। वह यही कहती रही कि नारायण नौ ही होते हैं, रुद्र ग्यारह ही होते हैं और तीर्थंकर चौबीस ही होते हैं, ऐसा जिनागम में कहा गया है और वे सब हो चुके हैं, यह तो कोई मायावी है।
दूसरे दिन चर्या के समय उसने एक ऐसे क्षुल्लक का रूप बनाया, जिसका शरीर बीमारी से क्षीण हो गया था। वह रेवती रानी के घर के समीपवर्ती मार्ग में मायामयी मूर्च्छा से पडा़ रहा। रेवती रानी ने जब यह समाचार सुना तब वह भक्तिपूर्वक उन्हें उठाकर ले गई, उसका उपचार किया और पथ्य कराने के लिए उद्यत हुई। क्षुल्लक ने सब आहार कर दुर्गन्ध से युक्त वमन कर दिया। रानी ने वमन को दूर कर कहा कि हाय मैंने प्रकृति के विरुद्ध आहार दिया। रेवती रानी के वचन सुनकर क्षुल्लक ने सब माया को दूर कर उसे गुप्ताचार्य की परोक्ष वंदना कराकर उनका आशीर्वाद कहा और उसकी अमूढदृष्टि की खूब प्रशंसा की। यह सब कर क्षुल्लक अपने स्थान पर चला गया। राजा वरुण शिवकीर्ति पुत्र के लिये राज्य देकर तथा तप ग्रहण कर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुआ तथा रेवती रानी भी तप कर ब्रह्म स्वर्ग में देव हुई।
कहानी का सार है कि सम्यक दृष्टि जीव अंधश्रद्धालु नहीं होता, वह प्रत्येक कार्य विचार पूवर्क करता है। यही सम्यक दर्शन का अमूढदृष्टि अंग है।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 22वां दिन)
शनिवार , 22 जनवरी 2022, बांसवाड़ा
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