बिना प्रयोजन जो लोक में प्रसिद्ध है, उन बातों को धर्म समझना पाप का कारण है। पुण्य और पाप मनुष्य की भावनाओं और बाहरी क्रियाओं से होता है। शुभ भावना और शुभ क्रिया से पुण्य और अशुभ भावना और अशुभ क्रिया से पाप का अर्जन होता है। मनुष्य को शुभ भावना और शुभ क्रिया के लिए गुणीजनों का आलम्बन चाहिए। इस संसार में उत्कृष्ट भावना और क्रिया कर जो तीर्थंकर एवं अरिहंत बने हैं, उनके आलम्बन की आवश्यकता है। इनके अलावा बाकी सब धर्म के नाम पर होने वाली क्रियाएं मिथ्या, पाप और अशुभ कर्म बन्ध का कारण हैं।
लौकिक में प्रसिद्ध कार्य किसी ना किसी बात या परिस्थिति से शुरू होता है और धीरे-धीरे वह धर्म की क्रिया बन जाती है। जैसे हम देखते हैं कि बड़, पीपल के पेड़ की पूजा होती है, उसे धर्म मानते हैं, जबकि आदिपुराण के अनुसार वास्तविकता तो यह है कि पीपल के पेड़ के नीचे भगवान आदिनाथ को केवलज्ञान हुआ, तब देवताओं ने वहां केवलज्ञान की पूजा की, लेकिन लोगों ने समझा कि पीपल की पूजा हो रही है।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में बताया है कि लौकिक प्रचलन में की जाने वाली क्रिया धर्म नही है। उन्होंने इस संबंध में कहा है कि –
आपगा सागर स्नानमुच्चयःसिकताश्मनाम् ।
गिरिपातोऽग्निपातश्च, लोकमूढं निगद्यते ॥22 ॥
अर्थात – धर्म समझकर नदी और समुद्र में स्नान करना, बालू और पत्थरों का ढेर लगाना, पर्वत से गिरना और अग्नि में गिरना-पड़ना लोकमूढ़ता कही जाती है।
अभिप्राय है कि अन्ध श्रद्धालु होकर बिना विचार किए धार्मिक क्रियाएं करना वास्तविकता में धर्म नहीं होकर लोकमूढ़ता है। इससे बचाना चाहिए। पर्यावरण का संरक्षण करना मनुष्य का धर्म है। जब मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए हवा, पानी, पर्वत, नदी का दुरूपयोग करने लगे तो कहा गया होगा कि इनमें भगवान बसते हैं। इसके पीछे का वास्तविक कारण पर्यावरण संरक्षण रहा है। श्रावक को अंधविश्वासों से परे रहकर शुद्ध भावना के साथ सम्यक दर्शन का पालन करना चाहिए। यही सच्चा धर्म है।
Opअनंत सागर
श्रावकाचार ( 28 वां दिन)
शुक्रवार, 28 जनवरी 2022, बांसवाड़ा
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