हम रास्ते से निकलें और हमें एक कसाई दिखाई दे जिसके हाथ में चाकू हो और एक पंडित दिखाई दे उसके हाथ में भी चाकू हो तो सब से पहले हमारे मन में विचार आएगा कि कसाई प्राणी की हिंसा करने जा रहा है और पंडित को देख कर मन में विचार आएगा कि प्रसाद तैयार करने जा रहा है। दोनों मनुष्य हैं, दोनो के हाथ में चाकू है पर हमारे मन में दोनों के प्रति भावों और विचारों में कितना बड़ा अंतर आ गया, क्यों कि हमने बचपन से यही सुन रखा है कि कसाई चाकू से प्राणी की हिंसा करता है और पंडित चाकू से प्रसाद बनाता है। यह सुनते- सुनते हमने अपनी धारण बना ली। पर यह जरूरी नहीं कि कसाई प्राणी की हिंसा ही करने जा रहा हो या पंडित प्रसाद ही तैयार करने जा रहा हो। हो सकता है दोनों किसी दूसरे काम से जा रहे हों। या हो सकता एक ही काम के लिए जा रहे हों। पर हमने अपने मन,मस्तिष्क को खराब कर लिया, राग-द्वेष के भाव बना लिए।
बस कुछ ऐसी ही धारणा धर्म के बारे में भी देख- देख कर, सुन-सुन कर, पढ़-पढ़ कर हमारी बन गई है। क्या धारण बन गई है ? किसी धर्मात्मा को दुःखी देख लिया, किसी श्रावक की तकलीफ देख ली तो हमारे मन में पहले यही आता है कि देखो धर्म करने के बाद भी कितना कष्ट हो रहा है। वहीं किसी ऐसे व्यक्ति को देखा जो धर्म नही करता, मंदिर नही जाता, धर्मात्मा के सेवा नही करता पर सुखी है। तो हमारे मन में विचार आता है कि धर्म करने से क्या फायदा। जो भाग्य में होगा वही मिलेगा। जो लिखा है वैसा ही होगा। इसी धारणा के कारण से हम धीरे धीरे धर्म ,धर्मात्माओं और धार्मिक क्रियाओं से दूर होते जा रहे हैं। इस धारणा को बदलना होगा।
याद रखिये धर्म, धर्म की क्रिया, धर्मात्माओं की सेवा, स्वाध्याय, आत्मचिंतन का फल इस भव में नही तो आने वाले भव में जब भी मिलेगा शुभ ही मिलेगा और अशुभ कर्म की निर्जरा होगी तो धर्म आदि शुभक्रिया से ही होगी नही तो नही होगी। धर्म आदि की संगति से भाग्य बनता है और अधर्म की संगति से भाग्य बिगड़ता है। वर्तमान में जो जिसको मिल रहा है वह उसके किए कर्म का फल है। और वर्तमान का पुरुषार्थ ही भविष्य का भाग्य बनता है। यह जरूरी नही की जो मैंने देखा वह मेरे साथ भी होगा। कोई सुखी नहीं है तो यह मान कर चलिए कि उसके धर्म पुरुषार्थ में कोई कमी रही होगी, जिसका फल उसे मिला होगा।
आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश में एक सुंदर कारिका कही है और बताया है कि किसके पास क्या मिलता है।
अज्ञानोपास्तिरज्ञानं, ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रय:।
ददाति यत्तु यस्यास्ति, सुप्रसिद्धमिदं वच:॥
अज्ञानी की उपासना अज्ञान देती है और ज्ञानियों की सेवा या उपासना ज्ञानवृद्धि करती है, क्योंकि यह वचन भली प्रकार प्रसिद्ध है कि जिसके पास जो है वह वही देता है।
अनंत सागर
अंतर्भाव
(चौबीसवां भाग)
9 अक्टूबर, 2020, शुक्रवार, लोहारिया
अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज
(शिष्य : आचार्य श्री अनुभव सागर जी)
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