समाज और संत के बीच की कड़ी कमजोर होती दिखाई दे रही है। इसका परिणाम भी सामने दिखाई दे रहा है। यह एक तरह का अलगाव सा वातावरण संत और समाज दोनों के लिए हानिकारक है जब कि यह एक निहित सत्य है कि “धर्म का रथ’ संत और समाज रूपी दो पहिए से चलता है। इन सब में संत और समाज का तो कुछ नहीं हुआ पर धर्म की अवहेलना हो रही है। आज धर्म एक परिहास का विषय बनकर रह गया है। धीरे धीरे परिणाम यह हुआ की धर्म का व्यवसायिकरण होने लगा है और इसके तहत कई संस्थाए, मंच, क्षेत्र आदि बन गए हैं जो धर्म को व्यावसायिक संस्थान की तरह खड़ा कर दिए हैं।इसका दुष्परिणाम यह हुआ है की आज समाज के पैसों का सदुपयोग नहीं हो रहा है और धर्म में राजनीति का प्रवेश हो गया है। इससे बड़ा पाप क्या हो सकता है की संत और समाज की कमजोर कड़ी से दोनों ने अपना अस्तित्व खो दिया है। यह कड़वा सत्य है और इसे स्वीकार भी करना होगा। क्योंकि बिना त्रुटि स्वीकार किए तो हम कभी कोई सुधार कार्य या अपने वास्तविक अस्तित्व की प्राप्ति नहीं कर सकते हैं। समाज की यह स्थिति हो गई है की वह अपने नगर, कॉलोनी में संतों को लाना नहीं चाहते हैं। संत अगर पहल भी करे तो समाज को बार-बार खबर देनी होती है तब जाकर आमंत्रण देने आते हैं। जबकि प्रख्यात संतों के साथ स्थिति भिन्न है, यही कारण आज हर संत बड़ा और नामी बनना चाहता है। शायद इसी परिस्थितिवश समाज के हित के लिए एक संत को महत्वाकांक्षा का बीज स्वयं में रोपित करना पड़ता है इसके लिए बुक, पोस्टर, पत्रिका आदि का वह प्रकाशन करवाता है, तकनीकी सहायता एवं सोशल मीडिया का सहारा लेता है। किन्तु इन सब के लिए पैसा चाहिए वस्तुतः भक्त बनाना शुरू होता है। यह काम सतत् चलता है जिसका कोई अंत नहीं होता। इस चक्रव्यूह में धर्म की उपेक्षा अनजाने में ही होने लगती है। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है दीक्षा के बाद का और इसलिए मैं यह दृढता के साथ कह सकता हूँ क्योंकि यह सब मैंने प्रत्यक्ष देखा है।
क्या संत और समाज मिलकर धर्म स्थापना और समाज में संस्कारों के बीजारोपण के लिए, समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने का बेड़ा नहीं उठा सकते हैं ? क्या साथ बैठकर धर्म अनुष्ठान नहीं कर सकते हैं ?? आज मैं भी अकेला हूं तो इसमें भी कोई बात तो है किसी ना किसी की गलती तो है की समाज में कभी इस बात पर ध्यान दिया? आकर पूछा की क्या बात है ? क्या इसे समाधान निकल सकता है ?
यह तो शास्त्रोक्त है, की समाज संत की चर्या का निर्वहन करे और संत समाज में संस्कारों का पोषण करे और संस्कृति के संरक्षण का मार्ग प्रदर्शित करे। किंतु यह सब नहीं हो रहा है। शायद यही कारण है की आज धर्म में राजनीति घुस गई है। जब की होना तो यह चाहिए की राजनीति में धर्म होना चाहिए। कुल मिलाकर संत और समाज दोनों ही अपने अस्तित्व को खोते जा रहे हैं। ऐसा ही होता रहा तो धर्मात्मा इस धरा पर नही बचेंगे और धर्म के नाम पर पाप होता रहेगा।
आज मैंने यह आलेख कुछ घटनाओं को देख कर लिखा है। किंतु आपकी जानकारी के लिए बताऊ तो कुछ घटनाएं तो स्वयम मेरे साथ भी घटी हैं।आगे की कड़ी में अगर जरूरत पढ़ी तो उन घटनाओं की विस्तार के साथ आप से चर्चा अवश्य करूँगा।
04
May
Give a Reply