पैसा सभी कमाना चाहते हैं और पैसे का सदुपयोग भी सभी करना चाहते हैं। इस प्रश्न को अगर हम समझना भी चाहें तो हमारे सामने बड़ी विचित्र स्थितियां बनती हैं। हमारे आचार्यों ने कहा कि धन जो आता है वह पुण्य से आता है, बिना पुण्य के धन मिल भी नहीं पाता है और पुण्य अगर न हो तो धन कि स्थिति भी दयनीय हो जाती है, धन चला जाता है। जो व्यक्ति अपने धन का उपयोग सुपात्रों में देता है, सुपात्र मतलब जिनका चरित्र अच्छा है, जिनका ज्ञान अच्छा है, जिनका व्यहवार अच्छा है, जो सकारात्मक दृष्टि रखते हैं, सकारात्मक काम करते हैं, जिनकी सत्ता धर्म के प्रति होती है, धर्मात्माओं के प्रति होती है, धार्मिक कार्यों के प्रति होती है और ऐसे इच्छुक व्यक्ति, जिन्हें धन की आवश्यकता हो, जिन्हें काम की आवश्यकता हो, जिन्हें भोजन की आवश्यकता हो, जिन्हें मार्गदर्शन की आवश्यकता हो, जो अपने जीवन में पुण्य करने की ताकत रखता हो और जो पुण्य के काम करना चाहता हो तो उन सभी व्यक्तियों के बीच में अगर हम धन का उपयोग करते हैं जैसे हम उनको धन देते हों, दान देते हों या हम धन देकर उनको धर्म के मार्ग पर लगाते हों, उनका चरित्र उज्जवल करते हों, उनके ज्ञान को बढ़ाते हों तो इस प्रकार से जो व्यक्ति अपने धन का उपयोग करता है उसका धन हजारों गुना बढ़ता है। जितना धन वो लगाएगा, जितना धर्म वो करेगा उससे हजार गुना धन उसके यहां बढ़ता है। धन बढ़ने के साथ उस व्यक्ति की सदबुद्धि भी बढ़ती है। कोई विकलांग व्यक्ति है और उसने अपना धन वहां लगा दिया। कोई व्यक्ति अनपढ़ है, किसी के पास व्यापार करने का साधन नहीं है और उसने अपना धन वहां लगा दिया। जिस गांव में मंदिर नहीं है उस गांव में मंदिर बनाने में धन लगा दिया। धर्म की प्रभावना करने के लिए बड़े-बड़े विधान करवा दिए। मुनि महाराज है, आर्यिका माता जी है, क्षुल्लक है, कोई संत है उनकी चर्या में अपने धन का उपयोग अगर आप करते हैं तो यहां भी धन देने से धन बढ़ता है और पुण्य का संचय भी बढ़ता है। भावना यह ना रखें कि इनको देने से धन बढ़ेगा, भाव दया और करुणा का होना चाहिए। देने से अपने आप धन बढ़ता है इसमें कहने की आवश्यकता भी नहीं है। हमें सिर्फ यह समझना है कि इन कार्यों में धन का सदुपयोग होता है। अगर वही धन ऐसे व्यक्तियों के बीच लग रहा है जो अनर्गल बातें करते हैं, जो व्यसनी हैं, जिनके निमित्त से नकारात्मक काम समाज में हो रहे हैं, जो समाज को नकारात्मक दृष्टि की ओर ले जा रहे हैं और जो समाज को बांटने का काम कर रहे हैं उन व्यक्तियों में अगर हमारा धन खर्च हो रहा है तो वह धन दान भी हमारे लिए दुःख का कारण हो सकता है। हमारे आचार्यों ने कहा है कि जो व्यक्ति अपने धन का दुरुपयोग करता है उसका धन 10 वर्ष के बाद अपने आप नष्ट हो जाता है। वह इतना पाप कर्म करता है कि उसके पाप के उदय से धन नष्ट हो जाता है। जो अपने धन को अच्छे कार्यों में लगाता है वह 10 वर्षों मे कई गुना पैसा कमाता है और उसके पुण्य से धन बढ़ जाता है क्योंकि छोड़ने का बहुत महत्व है। जो अपना धन छोड़ता है तो इसका तात्पर्य यह है कि उसको लालसा नहीं है, राग नहीं है, मोह नहीं है, बल्कि भावना है दया की, भावना है करुणा की, वात्सल्य की भावना है, प्रेम की भावना है जो उसमें जागती है। एक सीधा सा उदाहरण हम समझ लें एक बार कि धन के सदुपयोग से कैसे सुख मिलता है, कैसे शांति मिलती है। अगर आपको बहुत तेज भूख लगी है और आपके पास दो रोटी है। उस समय आपने देखा कि रोती हुई छोटी सी बच्ची है। आपके मन में आ गया बहुत भूखी है, रो रही है, आपने दो रोटी में से एक रोटी उस बालिका को दे दी जिसको उस रोटी की इच्छा थी। उसको रोटी देने के बाद आपने रोटी खाई। अब तुम महसूस करना अपने अन्दर कि जो तुमने खाई उसमें तुमको ज्यादा खुशी हुई या तुमने उस बच्ची को जो रोटी दी उसमें तुम्हारे को अधिक खुशी हुई। मैं मानता हुं कि अगर वह व्यक्ति धर्म से जुड़ा है और धर्म की बात को समझता है तो उसको रोटी खिलाने में ज्यादा आनन्द आया होगा। इससे आत्मा अन्दर से प्रसन्न होती है हमारी क्योंकि हमें लगता है कि आज हमने एक सत्कर्म किया है। ऐसे सत्कर्म करने की सन्त भी प्रेरणा देते हैं। हमारे पास करोड़ों रुपये होने से हम खुश नहीं होंगे, हमारे पास कई गाड़ियां होने से हम खुश नहीं होंगे, हमारे पास सोना होने से हम खुश नहीं होंगे, वह खुशी उसी समय मिलेगी जब हमारा धन किसी के काम आएगा। दुआएं भी दिल से मिलेंगी और दुआ से व्यक्ति जी जाता है। हम किसी के लिए प्रार्थना करते हैं वह प्रार्थना हमारे काम आ जाती है। अगर कोई, किसी व्यक्ति को सहजता से धर्म के मार्ग पर लगाता है तो इसका मतलब यह है कि वह व्यक्ति धर्म से जुड़ा है और वह पुण्य कर रहा है। पदम पुराण में आया है कि आपने किसी को धर्म के मार्ग पर लगाया है, आपके निमित्त वह धर्म पर लग गया है, आपने उसको धर्म पर लगाने का पुरुषार्थ किया है और उसने धर्म के अनुकूल-अनुरूप सभी परिस्थियां अपने जीवन में कर ली हैं तो आपने जिसको धर्म के मार्ग पर लगाया है, वह जितना पुण्य करेगा उसका सात प्रतिशत पुण्य आपके जीवन में आ जाएगा। पदम पुराण में आया है कि अगर हम दिगम्बर साधुओं की आहार-विहार की व्यवस्थाएं करते हैं तो साधु जितनी त्याग तपस्या करता है उस त्याग तपस्या का सात प्रतिशत हमें मिलता है। चाहे आपने तन से सहयोग किया हो या मन से किया हो या धन से उसका सहयोग किया हो। ऐसे कामों को करने के लिए हमें कहीं जाने की आवश्यकता भी नहीं होती। जहां देने के भाव होंते हैं वहां कोई झगड़ा भी नहीं होता क्योंकि वहां तो छोड़ने के भाव हो गये ना व्यक्ति के। हमारे आचार्यों ने बहुत स्पष्ट रूप से कहा है कि श्रावक के जो छह आवश्यक कर्तव्य हैं उसमें उन्होंने एक कर्तव्य, त्याग भी बताया है। त्याग मतलब दान। धन का त्याग हम आहार के माध्यम से, औषधि के माध्यम से कर सकते हैं। करुणा दान भी हम दे सकते हैं। इन चीजों के माध्यम से हम अपने धन का सदुपयोग कर सकते हैं। हमारे आचार्यों ने कहा भी है कि जितना हम कमाते हैं उसका पच्चीस प्रतिशत हमें दान करना चाहिए। आप विचार कर लेना कि हम कितना कमाते हैं और कितना हमें देना है। हमें धन ईमानदारी से ही कमाना चाहिए और उसका सदुपयोग करने का पुरूषार्थ करते रहना चाहिए। अगर हमारा धन बेईमानी से आ रहा है या हमारा धन बेईमानों के काम आ रहा है तो वह धन हमारे लिए मीठे जहर के समान हो जाएगा। वह हमारे लिए अशुभ कर्म बांध कर जाएगा। मंदिरों के अलावा हमें समाज के उत्थान के लिए, परिवार के उत्थान के लिए, देश के उत्थान के लिए हमारे धन का सदुपयोग करना ही चाहिए।
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23 नवम्बर 2019, उदयपुर
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