साधन, प्रबंधन, मार्गदर्शन और सहयोग नहीं मिलने से दब रही हैं प्रतिभाएं
जब कोई लक्ष्य लेकर निकलो तो कई लोग, कई बातें और कई प्रकार की स्थिति सामने आती हैं। इसी दौरान मुझे यह भी पता चला कि एक घर को चलाना कितना मुश्किल होता है। मैं बात कर रहा हूं दिवाली खुशियों वाली अभियान की, जिसमें हमने कुम्हारों से दीपक खरीद कर जरूरतमंदों को नि:शुल्क बेचने को दिए। जब कुम्हार के पास दीपक लेने गए तो उनकी कई समस्याओं के बारे में पता चला, जिन्हें जानकर ऐसा लगा कि इतनी विपरीत परिस्थिति में भी वे अपना पेट भरने और परम्परा से चले आ रहे व्यापार को जिंदा रखने के लिए कितनी जद्दोजहद कर रहे हैं। किसी के परिवार के बच्चे नौकरी की तलाश में दूसरी जगह चले गए, जहां से मिट्टी लाते थे, वहां की जमीन सरकार ने ले ली तो कहीं लोग बस गए। कभी अधिक वर्षा में मिट्टी नहीं सूख पाती तो कई बार दीपक बन जाते हैं लेकिन उन्हें सुखाने को जगह नहीं। जब दीपक बन भी जाते हैं तो डिजाइनर नहीं होने से कम मात्रा में बिक पाते हैं। राजस्थान पत्रिका में फोटो प्रकाशित हुए हैं, जिसमें बीकानेर में तो नि:शक्त कुम्हार दीपक बना रहे हैं। यह फोटो देखकर संवेदना जाग जाती है। बीकानेर के फोटोग्राफर से जब बात की तो उसने बताया कि बीकानेर में एक पूरा कुम्हार परिवार ही नि:शक्त है, वह रस्सी खींच कर दीपक बना रहा है। इतनी विकट परिस्थिति के बाद भी वह परिवार दीपक बस इसलिए तैयार कर रहा है कि उनका पेट भर जाए और हमारी संस्कृति जिंदा रह जाए। हमारे इस अभियान से जुड़ीं सागवाड़ा में रहने वाली अनीता जैन का कहना है कि जब वह कुम्हारों के पास गईं तो पता चला कि घर के जो बुजुर्ग हैं, वही दीपक बनाते हैं। युवा तो कुवैत चले गए क्योंकि यहां मिट्टी से बनने वाले सामान की बिक्री नहीं होती। जो कुम्हार दीपक बनाते हैं, वे घर-घर जाकर दीपक दे देते हैं, जिससे उनका पेट भर जाए। लोग भी इसलिए लेते हैं क्योंकि गांव में यह परम्परा चली आ रही है। आज भी कहीं तो कुम्हार दीपक घर-घर देता है और बदले में अनाज आदि लेकर आता है। विपिन दोसी को जब हमने कहा कि दीपक चाहिए तो उन्होंने पता करके बताया कि कुम्हार दीपक ही नहीं बनाते। वे अन्य शहरों से दीपक बने बनाए ले आते हैं और फिर बेचते हैं। इस सब परिस्थितियों से तो लगा इस काम के प्रबंधन की आवश्यकता है, तभी मिट्टी के दीपक आदि वस्तुएं घर-घर उत्साह से पहुंच सकती हैं। सामाजिक संगठन, शासन, प्रशासन को इस ओर जमीनी स्तर पर काम करना चाहिए। यह मात्र मिट्टी के दीपक आदि की बात नहीं है। यही परिस्थितियां उन सब हुनर वालों के सामने हैं, जो अपने पारम्परिक काम दक्ष हैं लेकिन साधन, प्रबंधन, मार्गदर्शन और सहयोग नहीं मिलने से उनकी प्रतिभाएं दब रही हैं। इन्हें सहयोग तन, मन और धन का होना जरूरी है। इसी बात का चिंतन किया कि कैसे हम अपनी संस्कृति और पारम्परिक व्यापार को बढ़ावा देकर स्वच्छता, पर्यावरण, स्वास्थ्य और आर्थिक मंदी से निपट सकते हैं। दैनिक भास्कर में पढ़ा कि मुम्बई में धारावी में अनेक जगह से आए कुम्हार दीयों का सालाना के एक हजार करोड़ रुपए का कारोबार करते हैं। इसका मतलब है पारम्परिक काम करने वालों को एक-दूसरे से जोड़ने का काम करना होगा। इसके लिए एक संगठन को जन्म देना जरूरी है, उसके जुड़ने वालों को एक धार्मिक नाम देना जरूरी है। बीते शुक्रवार को मेरे विचारों ने एक नाम को जन्म दिया और वो नाम था देवमित्र।
इसी को ध्यान में रखते हुए पूरे देश में “देवमित्र” की चेन तैयार करने का खयाल आया, जिसमें हर तरह के व्यक्ति हों और वे अपने स्तर पर पारम्परिक व्यापार को बढ़ावा दें। इस देवमित्र को तीन भागों में बांटा है। तन से सहयोग, मन से सहयोग औऱ धन से सहयोग करने वाले देव मित्र। यही देवमित्र अब प्रोत्साहन देने का काम भी करेंगे। हुनर और पारम्परिक व्यापार को प्रोत्साहन नहीं दिया तो कैसे हमारी संस्कृति जीवंत रह पाएगी, यही सोचने और चिंतन का विषय है।
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