पद्मपुराण के पर्व 17 में आर्यिका संयमश्री माता जी अंजना को उस समय अध्यात्म ज्ञान देती हैं जब अंजना जिन प्रतिमा का अपमान करती है। उसी प्रसंग को आपके सामने रख रहा हूं। ऐसे आत्मचिन्तन से हमारे कर्मों की भी निर्जरा होगी।
संसार में भ्रमण करता हुआ मनुष्य हमेशा दु:खी रहता है। जब अशुभ कर्म का नाश होता है तब मनुष्य जन्म मिलता है। अंजना तुम्हें पुण्य के उदय से यह मनुष्य पर्याय मिली है। तुम निंदनीय, खोटा आचरण करने वाली मत बनो। तुम्हें अच्छे कार्य करने चाहिए। जो मनुष्य पर्याय प्राप्त कर भी शुभ कार्य नही करता है उसके हाथों में आया रत्न भी नष्ट हो जाता है। मन, वचन, काय की शुभ प्रवृति ही मनुष्य का हित करती है और अशुभ प्रवृति अहित करती है। वही मनुष्य उत्तम है जो आत्महित का लक्ष्य रखकर शुभ कार्य करता है। जो धर्मचक्र के प्रवर्तक ऐसे अरिहन्त भगवान की प्रतिमा का तिरस्कार करता है वह जीव अनेक भवों तक ऐसे दुःखों को भोगता है जिनका वर्णन भी नहीं किया जा सकता है। अरिहन्त भगवान मध्यस्थ भाव को प्राप्त है। इसलिए इन्हें न शरणागत जीवों के प्रति प्रसन्नता होती है और न अपकार करने वालो पर द्वेष होता है, लेकिन जीव को उपकार और अपकार के निमित्त होने वाले शुभ-अशुभ परिणाम से सुख-दुख की प्राप्ति होती है।
अनंत सागर
अंतर्भाव
चबालीसवां भाग
26 फरवरी 2021, शुक्रवार, बांसवाड़ा
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