श्रावक अपने पाप कर्मों को निर्जरा पूजन आदि के द्वारा करता है । श्रावकाचारों में पूजन अनेक प्रकार की और अनेक प्रकार के द्रव्यों से करने का निर्देश दिया है । पर वर्तमान में अष्ट द्रव्य से पूजन का प्रचलन अधिक है । तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में कहा है कि वे देव झारी, कलश, दर्पण, तीन छत्र और चामरादि द्रव्यों से, स्फटिक मणिमय दंड के तुल्य उत्तम जलधाराओं से, सुगंधित गोशीर, मलय, चंदन, और कुंकुम के पंकों से, मोतियों के पुंजरूप शालिधान्य के अखंडित तंदुलों से, जिनका रंग और गंध फैल रहा है ऐसी उत्तमोत्तम विविध प्रकार की सैकड़ों मालाओं से; अमृत से भी मधुर नाना प्रकार के दिव्य नैवेद्यों से, सुगंधित धूपों से, प्रदीप्त किरणों से युक्त रत्नमयी दीपकों से, और पके हुए कटहल, केला दाडिम एवं दाख इत्यादि फलों से पूजा करते हैं। धवला ग्रंथ में चरु, बलि, पुष्प, फल, गंध, धूप और दीप आदि से अपनी भक्ति प्रकाशित करने का नाम अर्चना बताया गया है।।अर्चना का अर्थ पूजन ही होता है । वसु नंदी श्रावकाचार में अष्ट द्रव्य चढ़ाने का फल कुछ इस प्रकार बताया है-
जिन भगवान के आगे जलधारा के छोड़ने से पापरूपी मैल का शोधन होता है ।
चंदन रस के लेप से मनुष्य सौभाग्य से संपन्न होता है।
अक्षतों से पूजा करनेवाला मनुष्य अक्षय नौ निधि और चौदह रत्नों का स्वामी चक्रवर्ती होता है ।
पुष्पों से पूजा करनेवाला मनुष्य कमल के समान सुंदर मुखवाला, तरुणीजनों के नयनों से और पुष्पों की उत्तम मालाओं के समूह से समर्चित देह वाला कामदेव होता है।
नैवेद्य के चढ़ाने से मनुष्य शक्तिमान, कांति और तेज से संपन्न, और सौंदर्य रूपी समुद्र की तरंगों के शरीरवाला अर्थात् अति सुंदर होता है।
दीपों से पूजा करनेवाला मनुष्य, सद्भावों के योग से उत्पन्न हुए केवलज्ञानरूपी प्रदीप के तेज से समस्त जीव द्रव्यादि तत्त्वों के रहस्य को प्रकाशित करनेवाला अर्थात् केवलज्ञानी होता है ।
धूप से पूजा करनेवाला मनुष्य चंद्रमा के समान त्रैलोक्यव्यापी यशवाला होता है।
फलों से पूजा करनेवाला मनुष्य परम निर्वाण का सुखरूप फल पानेवाला होता है।
अनंत सागर
श्रावक
(सत्ताईसवां भाग)
4 नवम्बर, 2020, बुधवार, लोहारिया
अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज
(शिष्य : आचार्य श्री अनुभव सागर जी)
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