भक्तामर स्तोत्र
काव्य – 1
सर्व विघ्न उपद्रवनाशक
भक्तामर – प्रणत मौलि मणि – प्रभाणा –
मुद् द्योतकं दलित-पाप तमो वितानम् ।
सम्यक् प्रणम्य जिन पाद-युगं युगादा –
वालम्बनं भव जले पततां जनानाम् ॥ 1॥
अन्वयार्थ : भक्त –भक्तिमान् | अमर- देवों के | प्रणत – नम्रीभूत | मौलि – मुकुटों | मणि- मणियों की | प्रभाणाम् –प्रभा को | उद्योतकम् –प्रकाशित करने वाले | पाप –पापरुप | तमो –अन्धकार के | वितानम् – विस्तार को | दलित – नष्ट करने वाले | भवजले – संसार रुप सम्रुद में | पततां – गिरते हुए | जनानाम् –जीवों को | युगादौ – युग की आदि में ( कर्म भूमि के प्रारम्भ में ) | आलम्बनम् – सहारा देने वाले | जिन पादयुगं – जिनेन्द्र (श्रीऋषभजिन ) के चरण -युगल को | सम्यक् – भलीभांति से | प्रणम्य – प्रणाम करके
अर्थ: झुके हुए भक्त देवों के मुकुट जडित मणियों की प्रभा को प्रकाशित करने वाले,पाप रूपी अन्धकार के समूह को नष्ट करने वाले,कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुद्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन काय से प्राणाम करके ।(मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करूँगा)
जाप – ऊं ह्रां ह्रीं ह्रूं श्रीं क्लीं ब्लूं क्रौं ऊं ह्रीं नम : / स्वाहा
ऋद्धि जाप – ऊँ ह्रीं अर्हं णमो अरिहंताणं , णमो जिणाणं , ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा अप्रतिचक्रे फट् विचक्राय झौं झौं नम: / स्वाहा ।
अर्घ्य – ऊँ ह्रीं विश्वविघ्नहराय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताया हृदयस्थिताय श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दीप मंत्र – ऊँ ह्रीं विश्व विघ्नहराय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय हृदयस्थित श्री वृषभजिनाय दीपं समर्पयामि स्वाहा
जाप विधि – सफेद कपडे पहनकर सफेद आसन पर पूर्व दिक्षा की और मूर्ख कर पवित्र भाव से एक सौ आठ बार प्रथम काव्य ,ऋद्धि मंत्र तथा जाप की आराधना करते हुए एक लाख जाप करना चाहिए ।
कहानी –
संकल्प
संकल्प ही वह शक्ति है, जिसके कारण व्यक्ति को विपरीत परिस्थितियों का सामना करने का साहस पैदा होता है। आचार्य मानतुंग स्वामी ने उपसर्ग आने पर संकल्प पूर्वक आदिनाथ प्रभु की स्तुति की और उनकी सारी बेडिय़ां टूट गईं और सभी ताले खुल गए। एक बार एक युवा तपस्वी एक वन में साधना कर रहे थे। अचानक एक राजा वहां से गुजरे। तपस्वी को देखते हुए राजा वहां पहुंच तक बोले कि तुमने यौवन में संन्यास क्यों लिया? तुम्हें आखिर क्या कष्ट है। मैं सम्राट हूं। मैं तुम्हारे सारे दुख-दर्द दूर कर दूंगा। इस पर तपस्वी ने मुस्कुराते हुए कहा कि मुझे तुम सम्राट नहीं, दरिद्र लगते हो, तभी तो दूसरे राज्य पर आक्रमण करने जा रहे हो। मेरे घर में भी ऐश्वर्य की कमी नहीं थी लेकिन मेरे सिर में ऐसा दर्द हुआ कि किसी चीज से न मिट सका। तभी किसी ने कहा कि जैन मुनि महान तपस्वी होते हैं, जिनकी शरण में जाने से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। मैंने जैसे ही मुनिवर के पास पहुंचा, उनकी वीतरागी मुद्रा देखते ही मन प्रसन्नता से भर गया। मुनिवर ने मुझे एक मंत्र देकर उसका हर रोज एक घंटा जाप करने करने को कहा। मंत्र के जाप से मेरा सारा सिरदर्द चला गया। उसके बाद मुझे ज्ञात हुआ कि जन्म-मरण रोग से इससे भी ज्यादा कष्टकारी है। मुझे इससे मुक्त हो जाना चाहिए। तब से मैं वन में तपस्या कर रहा हूं और परम आनंद की प्राप्ति कर रहा हूं। यह सुनते ही सम्राट ने उसी वक्त सारा राजपाट त्याग दिया और परमात्मा की भक्ति में डूब गया ।
चित्र विवरण- भगवान अदिनाथ के चरणों में देवगण भक्तिपूर्वक नमस्कार कर रहे हैं । आचार्य मानतुंग हाथ जोडकर प्रभु की स्तुति में निमग्न हैं । जिन भक्तों ने प्रभु का सहारा लिया वे संसार समुद्र से पार होने जा रहे हैं ।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
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