भक्तामर स्तोत्र
काव्य – 16
सर्व-विजय-दायक
निर्धूम-वर्त्ति-रप वर्जित-तैलपूरः,
कृत्स्नं जगत् त्रय मिदं प्रकटी-करोषि ।
गम्यो न जातु मरुतां चलिता-चलानाम्,
दीपोऽपरस् त्वमसि नाथ! जगत् प्रकाशः ॥16॥
अन्वयार्थ :- त्वम् – तुम । निर्धू मवति – धूम और बत्ती से रहित हो । अपवर्जिततैलपूरः – तैल पूर से रहित हो । कृत्स्नम् – समस्त । इदं – इस । जगत्त्रयम् – त्रिजगत को । प्रकटोकरोषि – प्रकाशित कर रहे हो । चलिताचलानाम् – पर्वतों को चलायमान करने वाली । मरुतां – वायु के । जातु – कदाचित् । गम्य – गम्य । न – नहीं हो । जगत्प्रकाश: – अत: (आप) जगत् प्रकाशक । अपरः – अपूर्वं । दीपः- दीपक । असि- हो ।
अर्थ- हे स्वामिन ! आप धूम तथा बाती से रहित,तेल के प्रवाह के बिना भी इस सम्पूर्ण लोक को प्रकट करने वाले अपूर्व जगत प्रकाशक दीपक हैं जिसे पर्वतों को हिला देने वाली वायु भी कभी बुझा नहीं सकती ।
मंत्र जाप – ऊँ नमः सुमंगला सुसीमा नामदेवी सर्व समीहितार्थ वज्र श्रृंखला कुरु कुरु नम: स्वाहा ।
ऊँ ह्रीं जयाय नम: । ऊँ श्री विजयाय नमः । ऊँ क्रीं अपराजिताय नम: । ऊँ ग्लौं मणिभद्राय नम: ।
ऋद्धि जाप – ऊँ ह्रीं णमो चउदस पुव्वीणं झ्रौं झ्रौं नमः स्वाहा ।
अर्घ्य – ऊँ ह्रीं त्रैलोक्य वशंकराय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दीप मंत्र – ऊँ ह्रीं त्रैलोक्यवशंकराय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभनाथ जिनेन्द्राय दीपं समर्पयामि स्वाहा ।
जाप विधि- हरे रंग के कपडॆ, हरी माल ,हरा आसन पर बैठकर 1000 काव्य ऋद्धि मंत्र,मंत्र का जाप कुन्दरु की धूप के साथ करना चाहिए ।
कहानी 16
पाषाण बना रत्न
भक्तामर स्त्रोत से कोई भी चमत्कार हो सकता है, बस मन में श्रद्धा होनी चाहिए। राजा महीपचंद्र की पुत्री मित्रा बचपन से ही अच्छे संस्कारों और गुणों की खान थी और अधात्म की ओर झुकी हुई थी। राजा महीपचंद्र भी अपनी पुत्री को देखकर प्रसन्न रहते थे। उन्होंने उसे अधिक अध्ययन के लिए आर्यिका श्री के पास भेज दिया। मित्रा वहां जाकर समझ गई कि धर्म का आचरण सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। उसने आर्यिका श्री के सामने प्रतिज्ञा की कि वह रत्नमयी जिन प्रतिमा के दर्शन के बाद ही भोजन करेगा। मित्रा धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। एक दिन रानी सोमश्री ने कहा अब उन्हें उसका विवाह कर देना चाहिए। राजा ने वर की खोज शुरू कर दी और पास के क्षेमंकर का चयन वर के रूप में किया। विवाह होने के बाद सास ने दुल्हन को भोजन के लिए बुलाया तो मित्रा ने कहा कि उसकी भोजन की इच्छा नहीं है। सास के आग्रह करने पर उसने बताया कि वह जिन प्रतिमा के दर्शन के बिना भोजन नहीं करेगी। सास बोली, पास में ही चैत्यालय है। तुम दर्शन कर लो। इस पर मित्रा ने कहा कि वहां रत्नमयी मूर्ति नहीं है। क्षेमंकर ने यह सुनकर भक्तामर स्त्रोत के 16वें श्लोक का पाठ आरंभ किया। तभी जिन शासन की देवी चतुर्भुजी प्रकट हुईं और उन्होंने उसकी इच्छा पूरी होने का वरदान दिया। चैत्यालय में पाषाण की मूर्ति रत्नमयी हो गई। मित्रा के साथ जनता भी जय-जयकार कर उठी।
शिक्षा : इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि भक्तामर के 16वें श्लोक का पाठ पूरी भक्ति से करने से पत्थर भी सोने और रत्नों में बदल जाते हैं।
चित्र विवरण – दीपक,काला उगलते हुए प्रकम्पित लौ से युक्त है । भगवान आदिनाथ सम्पूर्ण लोक प्रकाशित करने वाले धूमरहित दीपक के समान प्रतीत हो रहे हैं ।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
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