भक्तामर स्तोत्र
काव्य – 20
संतान-लक्ष्मी-सौभाग्य-विजय बुद्धिदायक
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृताव काशम् ,
नैवं तथा हरि-हरादिषु नायकेषु ।
तेजःस्फुरन् मणिषु याति यथा महत्वम् ,
नैवं तु काच-शकले किरणा-कुलेपि ॥20॥
अन्वयार्थ – कृतावकांश- पूर्ण रुप से विकसित । ज्ञानं – ज्ञान । यथा – जैसा । त्वयि – आप में । विभाति-सुशोभित हो रहा है । तथा – वैसा । हरि हरादिषु – हरि (विष्णु) हर (महेश) आदि । नायकेषु – नायकों (देवों ) में । एवं न – नहीं । यथा – जैसा । स्फुरन्मणिषु – प्रकाशमान मणियों में । तेजः – तेज । महत्वं – महत्व को । याति – प्राप्त होता है । तथा – वैसा । किरणाकुले अपि – सूर्य की किरणों से चमकते हुए । काचशकले – काच के टुकडॆ में । न विभाति- नहीं शोभित होता है ।
अर्थ- अवकाश को प्राप्त ज्ञान,जिसमें प्रकार आप में शोभित होता है वैसा विष्णु महेश आदि देवों में नहीं । कांतिमान मणियों में तेज जिसे महत्व को प्राप्त होता है वैसे किरणों से व्याप्त भी काँच के टुकडे में नहीं होता ।
मंत्र जाप – ऊँ श्रां श्रीं श्रूं श्रः शत्रु भय निवारणाय ठः ठः नमः स्वाहा ।
ऊँ ह्रीं भगवते पुत्रार्थ सौख्यं कुरु कुरु ह्रीं नम: स्वाहा ।
ऋद्धि जाप – ऊँ ह्रीं अर्हं ण्मो चारणाणं झ्रौं झ्रौं नमः स्वाहा ।
अर्घ्य – ऊँ ह्रीं केवलज्ञान प्रकाशित लोकालोक स्वरुपाय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय हृदयस्थिताय श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीप मंत्र – ऊँ ह्रीं केवलज्ञान प्रकाशित लोकालोक स्वरुपाय क्लीं महाबीक्षर सहिताय हृदययस्थिताय श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय दीपं समर्पयामि स्वाहा ।
जाप विधि – काव्य का यंत्र स्थापित कर ,लाल कपडे,लाल माला , लाल आसन पर बैठकर पूर्व दिशा की और मुखकर काव्य,ऋद्धि मंत्र ,मंत्र का 108 बार जाप,स्मरण करें ।
कहानी
कुकर्मी बना धर्ममार्गी
एक नगर में एक सेठ अडोलदत्त थे। वह जैन धर्म में श्रद्धा रखते थे लेकिन उनका पुत्र विष्णुदास बहुत ही बिगड़ा हुआ था। एक दिन नगर में एक साधु पधारे। साधु ने नकली जटाएं लगा रखी थीं। उसने दूर से विष्णुदत्त को आते देखा तो अपने जाल में फंसाने की सोची। वह योगासान लगाकर बैठ गया। विष्णुदत्त ने उससे पूछा कि वह कैसे संसार समुद्र को पार पाए। साधु ने उससे कहा कि वह सालों से तपस्या कर रहा था। अब उसके पास कुछ नहीं है, इसलिए पहले वह उसका इंतजाम करे। साधु का सारा खर्चा उसने उठा लिया और साधु के कहने पर नगर में स्कूल खोलने के नाम पर चंदा इकट्ठा करने लगा। बहुत सारे पैसे इकट्ठे होने पर साधु ने एक दिन सारे लोगों को बुला कर कहा कि वह अब यहां से जाना चाहते हैं। साधु के साथ विष्णुदत्त भी चला गया लेकिन अगले नगर में उसने साधु का असली रूप देख लिया। एक दिन मौका पाकर साधु सारे पैसे लेकर रफूचक्कर हो गया। विष्णुदत्त अपने पिता के पास लौट आया। एक दिन नगर में दिगंबर साधु पधारे। विष्णुदत्त ने उनसे भी सवाल किया कि वह कैसे संसार समुद्र को पार पाए। इस पर उन्होंने उत्तर दिया कि हिंसा, झूठ, कुशील, चोरी और परिग्रह से बचो और उन्होंने उसे भक्तामर का 20वां श्लोक सिखाया। अगले दिन राजदरबार में विष्णुदत्त ने वह पाठ किया तो जिन शासन की देवीं भृगुगी प्रकट हुईं और विष्णुदत्त को अष्ट सिद्धियां प्रदान कीं। विष्णुदत्त उन जैन साधु के पैर में गिर गिया और जैन धर्म का सच्चा पालनकर्ता बन गया।
शिक्षा : इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि भक्तामर के 20वें श्लोक का पाठ पूरी भक्ति से करने से कुकर्मी भी धर्ममार्ग पर चल पड़ता है।
चित्र विवरण – हीरे-मोती,नीलम पन्ना की अपूर्व प्रभा के समक्ष काँच के टुकडॆ निष्प्रभ प्रतीत हो रहे हैं । अनंत प्रकाशयुक्त भगवान ऋषभदेव के समक्ष अन्य देवी देवताओं का कोई मतत्तव नहीं है ।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
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