भक्तामर स्तोत्र
काव्य – 24
शिर पीडा नाशक
त्वा-मव्ययं विभु-मचिंत्य-मसंखय-माद्यं,
ब्रह्माण-मीश्वर-मनंत-मनंग केतुम् ।
योगीश्वरं विदित-योग-मनेक-मेकं,
ज्ञान-स्वरूप – ममलं प्रवदंति संतः ॥24॥
अन्वयार्थ – संत: – संत पुरुष । त्वाम् – आपको । अव्ययम् – अक्षय । विभुम् – व्यापक । अचिंत्यम् – चिंतन में नहीं आने वाले । असंख्यम् – असंख्य गुण युक्त । आद्यम् – आदि के उत्पन्न हुए । ब्रह्माणम् – ब्रह्मा । ईश्वर – ईश्वर । अनंतम् – अनंत । अनंगकेतुम् – काम विनाशक । योगीश्वरम् – योगियों के ईश्वर । विदितयोगम् – योग के ज्ञायक । अनेकम् – गुण पर्याय की अपेक्षा अनेकरुप । एकम् – जीव द्रव्य की अपेक्षा एकरुप । ज्ञानस्वरुपम् – केवलज्ञानस्वरुप । अमलं – कर्म मल से रहित निर्मल । प्रवदंति – कहते हैं ।
अर्थ- सज्जन पुरुष आपको शाश्वत ,असंख्य,आद्या,ब्रह्मा,ईश्वर,अनंत ,अनंगकेतु,योगीश्वर,विदितयोग, अनेक,एक ज्ञानस्वरुप, विभु,अचिंतय और अमल कहते हैं ।
जाप – ऊँ नमः भगवती वड्ढमाण सामिस्ससर्व समीहिंत कुरू कुरू स्वाहा / नम : ।
स्थावर जंगम वायकृतिमं सकलविषं यद्भक्ते: अप्रणमिताय ये दृष्टिविषान्मुनीन्ते वड्ढमाणस्वामी सर्वहिंत कुरु कुरु नम: स्वाहा ।
ऊँ हृां हृीं ह्रूं हृौं हृः अ सि आ उ सा झ्रौं झ्रौं स्वाहा।
ऋद्धि मंत्र – ऊँ ह्रीं णमो दिट्ठि- विसाणं झ्रौं झ्रौं नम: स्वाहा ।
अर्घ्य- ऊँ ह्रीं सहस्त्र नामाधीश्वराय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दीपं मंत्र – ऊँ ह्रीं सहस्त्र नामाधीश्वराय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभ जिनेन्द्राय दीपं समर्पयामि स्वाहा ।
जाप विधि – गेरुवा कपडे,गेरु रंग की माला,गेरुवा आसन पर बैठकर उत्तर दिक्षा की और मुख कर जाप करना चाहिए ।
कहानी
संयमी बना गया विलासी
एक बार की बात है, एक नगर के राजा जितशत्रु बहुत ही विलासी थे और उन्होंने 36 राजकुमारियों से विवाह कर लिया। एक बार बसंत के मौसम में राजा अपनी रानियों के साथ निर्जन वन में सरोवर में स्नान कर रहे थे। कामुक राजा ने रानियों को नृत्य करने का आदेश दिया। नृत्य के बाद रानियां गर्व से अपने महल की ओर लौट रही थीं। वन देवता को यह सहन न हुआ और उन्होंने सारी रानियों को पागल कर दिया और वे सभी राजा पर हमला करने चलीं। राजा बचकर भागने लगा। तभी जंगल के एक वणिक पुत्र जा रहा था। उसने राजा को देख उसे बचाने की कोशिश की। रानियों ने उसकी भी दुर्दशा कर दी। राजा और वणिक पुत्र दोनों परेशान हो गए। वणिक पुत्र उन सभी को किसी तरह पास के वन में तपस्या में लीन शांतिकीर्ति मुनिराज के पास ले गया। दिगंबर मुनि को देखकर रानियां और पागल हो गईं और उन्मुक्तता से उनकी ओर बढ़ीं लेकिन यह क्या उनके तो पैर ही जम गए। तभी मुनि श्री ने भक्तामर स्तोत्र का 24वां एवं 25 वां श्लोक पढ़ते हुए सभी रानियों पर अपने कमंडल से जल निकालकर डाला। रानियां तुरंत अपने होश में आ गईं और राजमहल भागीं। राजा भी संयम की महिमा देखकर विलासी जीवन छोडक़र जैन धर्म के मार्ग पर चल पड़ा।
शिक्षा : इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि भक्तामर के 24वें श्लोक का पाठ पूरी भक्ति से करने से बड़े से बड़ा विलासी भी संयम और धर्म के मार्ग पर चल पड़ता है।
चित्र विवरण- भक्तगण अपनी अपनी भावना के अनुरुप भगवान का गुणगान कर रहे हैं ।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
Give a Reply