भक्तामर स्तोत्र
काव्य – 41
सर्प विष निवारक
रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलम्,
क्रोधोद्धतं फणिन-मुत्फण-मापतन्तम् ।
आक्रामति क्रम- युगेन निरस्त-शङ्कस्-
त्वन् –नाम -नाग-दमनी हृदि यस्य पुंस : ॥41॥
अन्वयार्थ: यस्य – जिस | पुंसः – पुरुष के | हृदि – हृदय में | त्वन्नाम – आपके नाम रूपी | नागदमनी – नागदमनी जड़ी बूटी है | (सः)-(वह)|निरस्तशङ्क:- निःशङ्क होकर | रक्तेक्षणम् – लाल नेत्रों वाले | समदकोकिल – मद युक्त कोयल के | कण्ठनीलम् – कण्ठ के समान काले | क्रोधोद्धतम् – क्रोध से फूंकारते हुए | आपतन्तम् – सामने आते हुए | उत्फणं – ऊपर को फन उठाये हुए | फणिनम् -साँप को | क्रमयुगेन – पाद-युगल से | आक्रामति – लाँध जाता है ।
अर्थ- जिस पुरुष के ह्रदय में नामरूपी –नागदौन नामक औषध मौजूद है,वह पुरुष लाल लाल आँखों वाले मदयुक्त कोयल के कण्ठ की तरह काले,क्रोध से उद्धत और ऊपर को फण्ड उठाये हुए ,सामने आते हुए सर्प को निश्शंक होकर दोनों पैरों से लाँघ जात है ।
जाप – ऊँ नमो श्रां श्रीं श्रूं श्रौं श्र: जलदेवि कमले पद्महद निवासिनी पद्मोपरिप – संस्थिते सिद्धिं देहि मनोवांछितं कुरु – कुरु स्वाहा ।
ऊँ आदिदेवाय ह्रीं नमः ।
ऋद्धि मंत्र – ऊँ ह्रीं णमो खीर-सवीणं झ्रौं झ्रौं नम: स्वाहा ।
अर्घ्य – ऊँ ह्रीं त्वन्नाम नागदमनी शक्ति सम्पन्नाय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दीप मंत्र – ऊँ ह्रीं त्वन्नाम नागदमनी शक्ति सम्पन्नाय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभ जिनेन्द्राय दीपं समर्पयामि स्वाहा ।
जाप विधि – सफेद कपडॆ ,सफेद माला,सफेद आसन पर बैठकर उत्तर दिक्षा की और मुख कर जाप करना चाहिए ।
कहानी
सर्पदंश
एक बार एक नगर में एक पति-पत्नी रहते थे। पति का रमेश और पत्नी की नाम नलिनी था। दोनों में आपस में जरा भी नहीं बनती थी। इसकी एक वजह थी और वह यह थी कि पत्नी तो जैन धर्म का पालन करती थी और पति इसका घोर विरोधी था। पति रात में भोजन करता तो पत्नी समझाती कि रात में भोजन नहीं करना चाहिए। जब वह जैन मंदिर जाती तो पति उसे डांटता था। पत्नी अपने पति को सदाचार के मार्ग पर लाने की बहुत कोशिश करती। इस बात से तंग आकर एक दिन रमेश ने नलिनी की हत्या करने की ठानी और एक कलश में विषैला सर्प लाकर रख दिया। वह पत्नी के पास प्रेम पूर्वक आया और बोला कि आज मैं तुम्हारे लिए हार लाया हूं, जो इस कलश में है। भोली-भाली पत्नी उसकी बातों में आ गई और कलश में हाथ डाल दिया। यह क्या कलश में से तो हार निकला। वह पति के पास पहुंची और कहा कि यह हार मेरे गले से ज्यादा तुम्हारे गले में शोभा देगा। पति के गले में वह हार फिर से सर्प बन गया और उसने पति को काट लिया। पति की ऐसी दशा देखकर नलिनी ने भक्तामर स्तोत्र के 41वें श्लोक का पाठ करना शुरू कर दिया, तभी जिन शासन की अधिष्ठात्री देवी पद्मावती प्रकट हुई और उसने रमेश को फिर से जीवित कर दिया। यह दृश्य देखकर रमेश के पूरे परिवार ने जैनधर्म को सहर्ष् स्वीकार कर लिया।
शिक्षा – इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि भक्तामर के 41वें श्लोक का पाठ करने से जहरीला नाग भी हीरों का हार बन जाता है और सर्पदंश का असर भी खत्म हो जाता है।
चित्र विवरण –प्रभु नाम रुमी नागदमनी का सहारा लेने वाले भक्त के सम्मुख महा विकराल सर्प भी शांत हो जाता है ।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
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