भक्तामर स्तोत्र
काव्य – 43
युद्ध में रक्षक और विजय दायक
कुन्ताग्र-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाह-
वेगाव -तार-तरणातुर-योध-भीमे ।
युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षास्-
त्वत् (द्)-पाद-पङ्कज-वना-श्रयिणो लभन्ते ॥43॥
अन्वयार्थ: कुन्ताग्र – भालों के अग्रभाग से । भिन्न – छिन्न-भिन्न हुए । गज – हाथियों के । शोणित-रक्तरूपी । वारिवाह – जल के प्रवाह में । वेगावतार – वेग से उतरने और । तरणातुर – तैरने के लिए आतुर । योधभीमे – योद्धाओं से भयानक ऐसे । युद्धे – युद्ध में । त्वत्पादपपङ्कज – आपके चरण कमल रूपी । वनाश्रयिणः – वन का आश्रय लेने वाले पुरुष । विजित – पराजित । दुर्जयजेयपक्षा:- दुर्जय शत्रु पक्ष को करके । जयम् – विजय । लभन्ते – प्राप्त करते हैं ।
अर्थ – हे भगवन् आपके चरण कमलरुप वन का सहारा लेने वाले पुरुष,भालों की नोकों से छेदे गये हाथियों के रक्त जल प्रावाह में पडे हुए ,तथा उसे तैरेने के लिए आतुर हुए योद्धओं से भयानक युद्ध में , दुर्जय शत्रु शत्रु पक्ष को भी को भी जीते लेते हैं ।
जाप – ॐ नमो चक्रेश्वरीदेवी चक्रधारिणी जिनशासन सेवाकारिणी क्षुद्रोपद्रव विनाशिनी धर्मशांतिकारिणी नमः शांतिं कुरु कुरु स्वाहा।
ऋद्धि मंत्र – ऊँ ह्रीं अर्हं णमो महुर सवीणं झ्रौं झ्रौं नम: स्वाहा ।
अर्घ्य – ऊँ ह्रीं सर्वभय निवारणाय शांतिविधायकाय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दीप मंत्र – ऊँ ह्रीं सर्वभय निवारणाय शांतिविधायकाय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय हृदयस्थिताय श्रीवृषभ जिनेन्द्राय दीपं समर्पयामि स्वाहा ।
जाप विधि – सफेद कपडॆ ,सफेद माला,सफेद आसन पर बैठकर पूर्व या उत्तर दिक्षा की और मुख कर जाप करना चाहिए ।
कहानी
त्याग की जीत
एक सम्राट था लेकिन वह बहुत ही ज्यादा विवेकहीन था। वह अपनी रानी के कहे में चलता था। उसके पास अपने खुद के ज्ञान का अभाव था। रानी ने सम्राट के छोटे भाई के खिलाफ उसके कान भर भल दिए। रानी ने सम्राट ने कहा कि तुम्हारा छोटा भाई तुमसे ज्यादा ज्ञानवान और शक्तिशाली है। उसे अपने राज्य से बाहर निकाल दीजिए, वरना वह खुद राजगद्दी पर बैठ जाएगा। सम्राट ने कुछ भी आगे-पीछे नहीं सोचा और छोटे भाई को राज्य से बाहर निकलवा दिया। छोटा भाई वन में कुटिया बनाकर रहने लगा और साधनारत होकर मंत्र सिद्धी करने लगा। सम्राट ने सोचा कि वह राज्य हड़पने के लिए ही मंत्र सिद्धी कर रहा है। उसने अपनी विशाल सेना को उसे मारने के लिए भेज दिया। छोटा भाई कई सालों से भक्तामर काव्य का पाठ करता आ रहा था। जिस समय सेना ने उस पर आक्रमण किया, उस समय वह भक्तामर काव्य के 43वें श्लोक का पाठ कर रहा था। तभी मंत्र की अधिष्ठात्री देवी ने अपनी शक्ति से सेना खड़ी कर दी। सम्राट की सेना इतनी बड़ी सेना को देखकर भाग खड़ी हुई। देवी की सेना सम्राट को बंदी बनाकर छोटे भाई के पास ले आई लेकिन छोटा भाई बड़े भाई को देखते ही उसने चरणों में नतमस्तक हो गया। ऐसा देखकर बड़े भाई को बहुत ग्लानि हुई और उसने अपने छोटे भाई से क्षमा मांग ली।
शिक्षा – इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि भक्तामर के 43वें श्लोक का श्रद्धापूर्वक पाठ करने से आधात्मिक बल प्राप्त होता है और नीति-अनीति का भान होकर विवेक की प्राप्ति होती है।
चित्र विवरण – भक्ति के प्रभाव से भक्त रक्त-रक्तिम युद्ध भूमि में भी विजय ध्वजा फहरा रहा है ।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
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