भक्तामर स्तोत्र
काव्य – 5
नेत्ररोग निवारक
सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्-मुनीश !
कर्तुं स्तवं विगत-शक्ति-रपि प्रवृतः ।
प्रीत्यात्म-वीर्य-मविचार्य मृगो मृगेन्द्रम्,
नाभ्येति किं निज-शिशोः परिपाल-नार्थम् ॥5॥
अन्वयार्थ – मुनीश – हे मुनियों के ईश्वर । तथापि – तो भी । सः अहम् – वह मैं । विगतशक्ति – शक्ति रहित । अपि – भी । तव-तुम्हारी । स्तवं- स्तुति । कर्तुं – करने के लिए । भक्तिवशात्- भक्ति के वश से । प्रवृत्तः – प्रवृत हुआ हूँ । मृग- हरिण । आत्मवीर्यम् – अपनी शक्ति को । अविचार्य- नहीं विचार करने । प्रीत्या – प्रीति के वश से । निजशिशोः – अपने शिशु को । परिपालनार्थ – बचाने के लिए । किम् – क्या । मृगेन्द्रम् – सिंह के सन्मुख । न अभ्येति – नहीं जाता है ? अर्थात जाता है ।
अर्थ- हे मुनीश ! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी,मैं –अल्पज्ञ,भक्तिवश आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ । हरिणी,अपनी शक्ति का विचार न कर,प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिए,क्या सिंह के सामने नहीं जाती ? आर्थात जाती है ।
मंत्र जाप – ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं क्रौं सर्व संकट निवारणेभ्यो सुपार्श्व यक्षेभ्यो नमो नमः / स्वाहा ।
ऋद्धि जाप- ऊँ ह्रीं अर्हं णमो अणंतोहि-जिणाणं झ्रौ झ्रौं नम: स्वाहा
अर्घ्य –ऊँ ह्रीं सकलकार्यसिद्धिकराय क्लीं महाबीजाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीप मंत्र – ऊँ ह्रीं सकलकार्यसिद्धिकराय क्लीं महाबीजाक्षरसहिताय हृदयस्थिताय श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय दीपं समर्पयामि स्वाहा।
जाप विधि – पीले वस्त्र पहनकर यंत्र स्थापित कर, पीले आसन पर बैठकर पीले रंग के फूलों द्वारा यंत्र की पूजा कर सात दिन तक लगातार 1000 बार ऋद्धि तथा मंत्र का शुद्ध भाव से जाप जपें और हर बार कुन्दरु की धूप खेवें ।
कहानी –
प्रभुभक्ति
प्रभुभक्ति एक ऐसी शक्ति है, जिससे परमात्मा से साक्षात्कार संभव है। दुनिया की हर चीज को प्रभु भक्ति से पाया जा सकता है। एक गरीब बढ़ई था लेकिन अचानक उसके पास बहुत सारी संपत्ति आ गई और उसने भगवान आदिनाथ का भव्य मंदिर भी बना दिया। एक दिन कुछ लोग बढ़ई से उसके ऐश्वर्य का राज पूछने आए। तब बढ़ई ने बिना किसी स्वार्थ के बताया कि एक दिन वह अपनी दुकान पर बैठा था। सामने कुछ बच्चे गिल्ली डंडा खेल रहे थे। तभी हाथ में पुस्तक लिए एक बच्चा वहां आया लेकिन उसके पास डंडा नहीं था। उसे एक बच्चे ने अपना डंडा दे दिया लेकिन वह डंडा खेलते वक्त टूट गया। बच्चा बहुत दुखी हो गया। तब मैंने उस बच्चे को बुलाकर उसका परिचय पूछा। वह सुधन श्रेष्ठी का पुत्र सोमक्रांति था। उसने बताया कि उसके पास जो पुस्तक है, उसका नाम भक्तामर है और केवल निस्वार्थी और निष्काम लोग ही उसे छू सकते हैं। मैंने उसे दो डंडे बनाकर दे दिए, एक खेलने के लिए और दूसरा लौटाने के लिए। बालक मुझे पुस्तक थमाकर चला गया। तभी मेरी नजर पुस्तक के पांचवे श्लोक पर पड़ी। मुझे इतनी श्रद्धा हुई कि पुस्तक लेकर मैं एक निर्जन गुफा चला गया। एक दिन पाठ करते-करते अजिता देवी प्रकट हुईं और उन्होंने मुझे धन का वरदान दिया। मैं तय किया कि धन के प्रयोग से पहले भगवान आदिनाथ का मंदिर बनवाऊंगा और उस पर पांचवा श्लोक लिखवाऊंगा। इस घटना के बाद सभी भक्तामर स्त्रोत के भक्त बन गए।
शिक्षा : इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि जो भी भक्तामर के पांचवे श्लोक का पाठ पूरी भक्ति से करता है, उसे खूब सारी धन संपत्ति प्राप्त होती है।
चित्र विवरण- स्वयं को शक्तिहीन कहते हुए आचार्य मानतुंग भगवान की स्तुति करने के प्रयास में हैं। दूसरी ओर मृगी,अपने शिशु की रक्षा के लिये आक्रामक सिंह का मुकाबला कर रही है ।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
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