भक्तामर स्तोत्र
काव्य – 7
सर्व विष व संकट निवारक
त्वत् संस्तवेन भव-संतति-सन् निबद्धम्
पापं क्षणात्क्षय-मुपैति शरीर-भाजाम् ।
आक्रांत-लोक-मलिनील-मशेष-माशु,
सूर्यांशु-भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम् ॥7॥
अन्वयार्थ – त्वत्संतवेन – आपके स्तवन से । शरीर भाजाम् – शरीर धारी प्राणियों के । भवसन्तति – अनेक भवों । सन्निबद्धम् – बन्धें हुए । पापं- पाप । क्षणात् – क्षणभर में । क्षयम् – क्षय को । उपैति – प्राप्त हो जाते हैं । आक्रांतलोकम् – लोक में व्याप्त । अलिनीलम् – भोरें के समान काला । शार्वरम् – रात्रि का । अन्धकारम् – अन्धकार । आशु-शीघ्र । सूर्यांशुभिन्नम् – सूर्य की किरणों से छिन्न भिन्न हो जाता है । इव – जैसे
अर्थ – आपकी स्तुति से ,प्राणियों के,अनेक जन्मों में बाँधे गये पाप कर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं । जैसे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त रात्रि का अन्धकार सूर्य की किरणों से क्षणभर में छिन्न भिन्न हो जाता है ।
मंत्र जाप – ऊँ ह्रीं हं सं श्रां श्रीं क्रौं क्लीं सर्वदुरित संकट क्षुद्रोपद्रव कष्ट निवारणं कुरु कुरु स्वाहा ।
ऋद्धी मंत्र – ऊँ ह्रीं अर्हं णमो बीज बुद्धीणं झ्रौं झ्रौं नम: / स्वाहा ।
अर्घ्य – ऊँ ह्रीं सकल पापफल कष्ट निवारणाय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय हृदय स्थिताय श्रीवृषभनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा
दीप मंत्र – ऊँ ह्रीं सकल पाप फल कष्ट निवारणाय क्लीं महाबीजाक्षर सहिताय हृदय स्थिताय श्रीवृषभनाथ जिनेन्द्राय दीपं समर्पयामि स्वाहा ।
जाप विधि – हरे रंग के कपडे पहनकर हरे रंग का आसन पर बैठकर पूर्व दिक्षा की और मुख कर हरी जाप माला से 21 दिन तक प्रतिदिन 108 बार काव्य , ऋद्धि मंत्र तथा जाप मंत्र जपते हुए लोभान की धूप क्षेपण करना चाहिए ।
कहानी –
सत्य की जीत
आचार्य मानतुंग स्वामी सत्य की राह पर चलने वाले थे। इसलिए 48 तालों में बंद रहने के बावजूद उनके पर लगे झूठ के ताले एक-एक करके टूटते गए। मध्ययुग में पाटलिपुत्र में राजा धर्मपाल शासन किया करता था। इस दौर में कई झूठे तपस्वी अपने झूठे चमत्कारों से लोगों को भ्रमित करते रहते थे। धूलिया नाम के एक कपटी ने पाखंड का जाल बिछाकर लोगों को अपने जाल में फंसा लिया था। क्या प्रजा, क्या राजा, सभी उसके चरणों में नतमस्तक रहते थे। भगवान जिनेंद्र का एक भक्त रतिशेखर सम्यग्दृष्टि रखने वाला श्रावक था। एक दिन रतिशेखर अध्ययनशाला में बैठा हुआ अध्ययन कर रहा था कि धूलिया का एक शिष्ट इस आस में उसके पास आकर बैठ कर गया कि रतिशेखर उसे नमस्कार करे लेकिन रतिशेखर ने ऐसा नहीं किया। शिष्य ने उसकी शिकायत धूलिया से कर ली। धूलिया ने वैताली विद्या की देवी अनुगामिनी से रतिशेखर का नाश करने को कहा। देवी के प्रभाव से रतिशेखर का भवन धूल के समुद्र में डूब गया। रतिशेखर भक्तामर स्त्रोत के सातवें श्लोक का पाठ करने लगा। इससे सातवें श्लोक की देवी जुंभ, वैताली विद्या की देवी पर सवार हो गईं और उसे धिक्कार कर भगा दिया। धूल का चक्रवात अब धूलिया के भवन पर मंडराने लगा और उसका सांस लेना भी दूभर हो गया। धूलिया और उसके चेलों ने जैन धर्म को अंगीकृत कर लिया।
शिक्षा : इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि भक्तामर स्त्रोत के सातवें श्लोक का पाठ करने से बड़े से बड़ा पाखंडी कुछ नहीं बिगाड़ पाता।
चित्र विवरण- प्रभु भक्ति में लीन भक्त से क्रोधादि कषाय एवं पाप दूर भाग रहे हैं । दूसरी ओर सूर्योदय होते ही अंधकार दूर होता जा रहा है ।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
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