भरत चक्रवर्ती और बाहुबली से प्रेरणा लेनी चाहिए कि उन्होंने अहिंसा युद्ध की स्थापना कर हमें बताया कि हम कैसे हिंसा से बच सकते हैं वहीं बाहुबली अहिंसा युद्ध जीत कर भी सब छोड़ कर मुनि बन गए। तो चलो पढ़ते है कैसे हुआ अहिंसा युद्ध –
भरत चक्रवर्ती जब अपनी छह खण्ड की दिग्विजय यात्रा कर अयोध्या लौटे तो चक्ररत्न अयोध्या के प्रवेश द्वार के अन्दर नहीं जा पा रहा था। तब राज्य ऋषियों ने भरत को कहा कि इस संसार में अभी भी एक राजा ऐसा है, जिसने आपकी अधीनता स्वीकार नहीं की है। भरत ने पूछा वह कौन है? राजगुरु ने कहा राजकुमार बाहुबली। भरत ने पूछा तो क्या मुझे अपने भाई से युद्ध करना होगा? यदि ऐसा है तो मुझे नहीं चाहिए ऐसा चक्रवर्ती पद। राजगुरु ने कहा, यह तुम्हारे अकेले का निर्णय नहीं हो सकता। यह राज-काज का काम है। एक राजा का कर्त्तव्य है कि वह अपने राज्य के विस्तार और राज्य की भलाई के लिए परिवार का मोह त्यागे।
बाहुबली के पास सन्देश गया तो बाहुबली ने कहा कि बड़े भाई के नाते भरत को हजारों बार प्रणाम है, उनकी हर आज्ञा का पालन होगा पर अभी यह सन्देश एक चक्रवर्ती ने भेजा है तो मैं अपने राज धर्म से बंधा हूं। मैं अपने पिता के दिया राज्य किसी को नहीं दे सकता, अपने स्वाभिमान को नहीं छोड़ सकता।
तब निर्णय किया गया कि अहिंसा युद्ध किया जाएगा, जिसमें दोनों भाई अपनी शक्ति का प्रदर्शन करेंगे और जो पराजित होगा, वही उसे अधीनता स्वीकार करेगा। दोनों भाइयों के बीच जल, थल और दृष्टि युद्ध हुआ। इन तीनों युद्धों में बाहुबली ने भरत को पराजित कर दिया। यह युद्ध धन, जमीन या स्त्री के लिए नहीं था। भरत के लिए यह युद्ध चक्ररत्न को अयोध्या में प्रवेश करवाने के लिए या कहें एक नियोग को पूरा करने के लिए था, जो उसके पुण्य का था। बाहुबली के लिए यह युद्ध अपने स्वाभिमान को बचाने के लिए था।
जिस प्रकार आदिनाथ की आहारचर्या ने मुनियों को बताया कि दीक्षा के बाद आहार पर कैसे उतरा जाता है, उसी प्रकार भरत और बाहुबली के बीच युद्ध भी यही सिखाने के लिए हुआ कि बिना हथियार उठाए युद्ध कैसे किया जा सकता है। तीनों युद्ध में बाहुबली विजयी हुए और भरत को पराजित होना पड़ा। बाहुबली को इस घटना से वैराग्य हुआ और वे मुनि बन कर तपस्या करने चले गए। आत्म साधना करते हुए वे मोक्ष को प्राप्त हुए और आज हम उन्हीें की आराधना करते हैं।
अनंत सागर
प्रेरणा
सैत्तीसवां भाग
14 जनवरी, 2021 गुरुवार, बांसवाडा
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