वेश कैसा भी हो पर जब तक अंदर से भाव निर्मल नहीं होते हैं, तब तक कर्मों की निर्जरा नहीं हो सकती है। कर्मों का बन्ध और निर्जरा अंतरंग और बाह्य दोनों की क्रिया के आधार पर होता है । गुणों की प्राप्ति कर्म निर्जरा से ही होती है।
भारतीय एवं जैन संस्कृति के शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य की पहचान नाम आदि से नहीं बल्कि उसके गुणों के आधार पर होती है। गुणों को ही प्रणाम किया गया है । तत्त्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण में भी कहा गया है ‘बन्दे तद् गुणलब्धये’ अर्थात मैं आप के गुणों की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूं। सम्यग्दर्शन से बड़ा और कोई गुण नहीं, जो कर्म निर्जरा का कारण हो ।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सम्यग्दर्शन का महत्त्व बताते हुए कहा है कि
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो, निर्मोहो नैव मोहवान् ।
अनगारो गृही श्रेयान्, निर्मोहो मोहिनो मुनेः ॥ 33 ॥
अर्थात- मोह एवं मिथ्यात्व से रहित गृहस्थ मोक्षमार्ग में स्थित है परन्तु मोह-मिथ्यात्व से सहित मुनि मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है। मोही मिथ्यादृष्टि मुनि की अपेक्षा मोहरहित-सम्यग्दृष्टि गृहस्थ श्रेष्ठ है।
क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद और मिथ्यात्व इनके समूह का नाम मोह है। सच्चे देव, शास्त्र, गुरू पर श्रद्धा न करना या झूठे देव, शास्त्र एवं गुरु पर श्रद्धा करना मिथ्यात्व है। विपरीत या गलत धारणा का नाम मिथ्यात्व है।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 39 वां दिन)
मंगलवार, 8 फरवरी 2022, बांसवाडा
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