जब अशुभ कर्म प्रकट होते हैं तो जीवन में संकट, दुःख आते हैं। पर उन दुःखों के समय श्रावक को क्या विचार करना चाहिए। सीता से जुड़ा एक प्रसंग पद्मपुराण के पर्व 97 में आता है। वह प्रसंग श्रावकों के लिए अनुकरणीय है। आइए, जानते हैं वह प्रसंग…
जब सीता को राम के आदेश से कृतान्तवक्त्र सेनापति सिंहनाद वन में छोड़ गया, उस समय श्रावक धर्म का पालन करते हुए सीता विचार करती हैं-मैंने निश्चित रूप से गोष्ठियों (सभा) में किसी का मिथ्या दोष कहा होगा जिस कारण से यह संकट मेरे पर आया है । अन्य जन्म में गुरु से लिए नियमों को भंग किया होगा जिसका ऐसा फल मिला हो। अन्य जन्म में विषय के समान कठोर वचन के द्वारा किसी का तिरस्कार किया होगा, इसलिए मुझे ऐसा दुःख प्राप्त हुआ। अन्य जन्म में चकवा-चकवी को अलग किया होगा, इसीलिए तो मैं भर्ता से रहित हुई हूँ। हंस-हंसियों, कबूतर-कबूतरियों के युगल को मैंने अलग किया होगा अथवा अनुचित स्थानों में उसे रखा होगा, बांधा होगा, मारा होगा या सम्मान-लालन पालन आदि से रहित किया होगा इसलिए मैं ऐसे दुःख को प्राप्त हुई हूँ। मैंने क्षमा के धारक,नसदाचार के पालक,इन्द्रियों को जीतने वाले तथा विद्वानों के द्वारा वन्दनीय मुनियों की निन्दा की होगी जिसके फलस्वरूप यह महादुःख मुझे मिला है। मैं पहले स्वर्गतुल्य घर में रहती थी, पर मैं इस समय बंधुजन से रहित इस सघनवन में कैसे रहूंगी? मेरे पुण्य समूह का क्षय हो गया, मैं दुःखों के सागर में डूब रही हूं तथा मैं अत्यंत पापिनी हूं। सीता इस प्रकार से आत्मसाक्षीपूर्वक अपनी निन्दा कर रही थीं। ऐसा करने पर ही श्रावक के जीवन से अशुभ कर्म निकलते हैं।
अनंत सागर
श्रावक
23 जून 2021,बुधवार
भीलूड़ा (राज.)
Give a Reply