आधुनिक युग में जीवन मूल्यों की पहचान के स्थान पर ‘चमत्कार को नमस्कार‘ की भावना प्रबल हो गई है। सांसारिक सुखों की चाह में मनुष्य सम्यक और मिथ्यात्व की पहचान नहीं कर पा रहा है। स्वार्थ सिद्धि की चाह में वह सही-गलत को समझे बिना दौड़ रहा है। जहां उसे लगता है उसका काम हो जाएगा, वहीं चला जाता है, चाहे वह रास्ता पाप कर्म की ओर ही ले जाना वाला क्यों नहीं हो। बिना किसी विचार के सम्यग्दर्शन को मलिन या नष्ट करने वाला कार्य कर लेता है।
मिथ्या कार्य का अर्थ है हिंसा, राग-द्वेष, माया, लालच, कपट और कषाय आदि के साथ किए जाने वाले कार्य, जो किसी दूसरे का अहित करते हैं, या जिनसे पाप कर्मों का बंध होता है। मनुष्य की तुरंत फल की चाह में यह सब हो रहा है। मनुष्य चाहता है कि वह जो सम्यक-धर्म का कार्य कर रहा है, उसका फल उसे तत्काल मिल जाए, लेकिन तत्काल फल नहीं मिलने पर वह मिथ्या मार्गी हो जाता है। वह भूल जाता है कि उसने सकारात्मक सोच के साथ जो सम्यक कार्य किया है उसका फल शुभ ही होगा। अच्छेे कार्यों के बावजूद जो दुःख मिला है, वह पुराने कर्मों का फल है। हमने धर्म के मार्ग पर चलकर जो सम्यक कर्म किए हैं, उनका फल आने वाले समय में शुभ ही होगा।
आचार्य समन्तभ्रद भ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सम्यग्दर्शन के आठ गुणों में से चौथे अमूदृष्टि अंग का स्वरूप बताते हुए कहा है कि –
कापथे पथि दुःखानां, कापथस्थेऽप्यसम्मतिः।
असंपृक्ति-रनुत्कीर्ति रमूढा दृष्टिरुच्यते ॥14॥
अर्थात– दुःखों के मार्गस्वरूप मिथ्यादर्शनादि-रूप कुमार्ग में और कुमार्ग में स्थित जीव में भी मानसिक सम्मति से रहित वाचनिक प्रशंसा से रहित और शारीरिक सम्पर्क से रहित है, वह मूढ़ता रहित श्रद्धा/अमूदृष्टि अंग कहा जाता है।
सम्यग्दर्शन को बनाए रखने के लिए मनुष्य को अमूदृष्टि अंग का पालन करते हुए कभी भी लौकिक या चमत्कारपूर्ण कुमार्ग में नहीं जाना चाहिए। अगर कुमार्ग में स्थित होते हुए भी कोई फल-फूल रहा है तो ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव को देखकर मन में ऐसा भाव नहीं लाना चाहिए कि यह मार्ग अच्छा है अथवा इस मार्ग का पालन करने वाला मनुष्य अच्छा है। शरीर से उसकी प्रशंसा नहीं करना और वचन से उसकी स्तुति नहीं करना अमूदृष्टि नामक गुण है। सम्यक दृष्टि जीव श्रद्धालु तो होता है, पर अन्ध श्रद्धालु नहीं होता। वह प्रत्येक कार्य विचारपूर्वक ही करता है। कहने का अभिप्राय है हमें विपरीत स्थितियों में भी क्षणिक सुखों की चाह रखकर सम्यक पथ को नहीं त्यागना चाहिए। मिथ्या और सद्कर्म के बीच का अंतर जान सदैव धर्म की राह पर आगे बढ़ना चाहिए।
अनंत सागर
श्रावकाचार (तेरहवां दिन)
गुरुवार, 13 जनवरी 2022, बांसवाड़ा
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