चौथी ढाल
अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहपरिमाण अणुव्रतों का स्वरूप तथा दिग्व्रत का लक्षण
जल मृतिका बिन और, नाहिं कछु गहैं अदत्ता।
निजवनिता बिन सकल, नारिसों रहै विरत्ता।।
अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखै।
दश दिश गमन प्रमान ठान, तसु सीम न नाखै।।11।।
अर्थ – जल और मिट्टी, जिनका कोई स्वामी नहीं और जो सबके उपयोग के लिए हैं, को छोड़कर अन्य किसी भी बिना दी हुई वस्तु को नहीं ग्रहण करना, अचौर्याणुव्रत है। अपनी विवाहिता स्त्री के सिवाय संसार की सब स्त्रियों से विरक्त रहना, ब्रह्मचर्याणुव्रत है। (इसे स्वदारा सन्तोषव्रत भी कहते हैं)। अपनी शक्ति का विचार करके धन, धान्य आदि परिग्रह का थोड़ा आवश्यक प्रमाण करना (मर्यादा बाँधना), परिग्रह परिमाणाणुव्रत है। अब गुणव्रतों का वर्णन करते हैं। दशों दिशाओं में गमनागमन की मर्यादा निश्चय करके उस मर्यादा का उलंघन न करना ‘दिग्व्रत’ नामक पहला गुणव्रत है।
विशेषार्थ – परिग्रह परिमाण अणुव्रत तीन प्रकार का है-
उत्तम (२) मध्यम (३) जघन्य
उत्तम-जितना परिग्रह है, उससे कम की मर्यादा करना।
मध्यम-वर्तमान में जितना परिग्रह है, उससे अधिक नहीं रखूँगा।
जघन्य-वर्तमान में जितना परिग्रह है उससे अधिक का प्रमाण करना।
मूलगुणों और अणुव्रतों को दृढ़ करने वाले व्रत गुणव्रत कहलाते हैं।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
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