चौथी ढाल
देशव्रत नामक गुणव्रत का लक्षण एवं अनर्थ दंडव्रत
ताहू में फिर ग्राम, गली गृह बाग बजारा।
गमनागमन प्रमान ठान, अन सकल निवारा।।
काहू की धनहानि, किसी जय हार न चिन्तै।
देय न सो उपदेश, होय अघ बनज कृषीतैं।।१२।।
अर्थ – दिग्व्रत में जीवनपर्यन्त के लिए की गई आवागमन के विस्तृत क्षेत्र की सीमा में भी समय की मर्यादा और बाँध देना अर्थात् घड़ी, घण्टा, दिन, महीना, वर्ष आदि काल के नियमानुसार अमुक प्रान्त, नगर, बाग, बाजार, गली, घर आदि तक आने-जाने की मर्यादा (सीमा) निश्चित कर लेना ‘देशव्रत’ नामक गुणव्रत कहलाता है। व्रती श्रावक इसका कभी उल्लंघन नहीं करता है। किसी के धन का नाश हो जावे, किसी की जीत हो जावे, किसी की हार हो जावे, ऐसा विचार नहीं करना पहला ‘अपध्यान’ नामक ‘अनर्थदण्डविरतिव्रत’ है। ऐसे व्यापार-उद्योग या खेती करने (जिससे पाप-बंध होता हो) का दूसरों को उपदेश नहीं देना, ‘पापोपदेश’ नामक दूसरा अनर्थदण्डविरतिव्रत है।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
Give a Reply