चौथी ढाल
शिक्षाव्रतों के लक्षण
धर उर समताभाव, सदा सामायिक करिये।
परब चतुष्टय माहिं, पाप तज प्रोषध धरिये।।
भोग और उपभोग, नियम करि ममत निवारै।
मुनि को भोजन देय, पेâर निज करहि अहारै।।14।।
अर्थ – अर्र्थ-जो व्रत मुनिधर्म पालन करने की शिक्षा देते हैं, उन्हें ‘शिक्षाव्रत’ कहते हैं। इसके ४ भेद हैं-१. रागद्वेष को त्याग कर अपने परिणामों को स्थिर कर एकान्त स्थान में प्रतिदिन विधिपूर्वक देववंदना-सामायिक करना ‘सामायिक शिक्षाव्रत’ है। (२) प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को कषाय और व्यापार आदि आरंभ के सांसारिक कार्यों को त्याग कर धर्मध्यानपूर्वक प्रोषधोपवास (धारणा एवं पारणा के दिन एकाशन सहित उपवास) करना ‘प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत’ है। परिग्रह परिमाणव्रत में परिमित भोगोपभोग की वस्तुओं में से जीवन भर के लिए अथवा कुछ निश्चित समय के लिए नियम (परिमाण) करना ‘भोगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रत’ है। इसे ‘देशावकाशिक शिक्षाव्रत’ भी कहते हैं। दिगम्बर (निर्ग्र्रंथ) मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका आदि त्यागीव्रती को ‘आहारदान’ देकर फिर स्वयं भोजन करना ‘वैय्यावृत्ति शिक्षाव्रत’ है। इसे ‘अतिथि संंविभाग शिक्षाव्रत’ भी कहते हैं। विशेषार्थ – जो वस्तुएँ एक ही बार भोगने में आती हैं, उन्हें भोग करते हैं। जैसे-भोजन, पान आदि। जो वस्तुएँ बार-बार भोगने में आती हैं, उन्हें उपभोग कहते हैं। जैसे-वस्त्र, मकान, स्त्री आदि।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
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