चौथी ढाल
अतिचार न लगाने का आदेश और व्रत पालन का फल
बारह व्रत के अतीचार, पन-पन न लगावै।
मरण समय संन्यास धार, तसु दोष नशावै।।
यों श्रावक व्रत पाल, स्वर्ग सोलम उपजावै।
तहँतैं चय नर-जन्म पाय, मुनि ह्वै शिव जावै।।15।।
अर्थ – जो गृहस्थजन श्रावक के पूर्वोक्त बारह व्रतों (पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत) को विधिपूर्वक जीवनपर्यन्त पालते हुए उनके पाँच-पाँच अतिचारों को भी टालते हैं और मृत्यु के समय पूर्वोपार्जित दोषों को नष्ट करने के लिए विधिपूर्वक समाधिमरण (सल्लेखना) धारण करते हैं, वह आयु पूर्ण होने पर व्रतों के प्रभाव से सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं और वहाँ से चय कर मनुष्य पर्याय धारण कर मुनिव्रत का पालन करते हुए उसी पर्याय से मोक्ष चले जाते हैं।
विशेषार्थ – ग्रहण किये हुए व्रतों का प्रमाद आदि के कारण एकदेश भंग हो जाना अतिचार कहलाता है। आत्मकल्याण हेतु क्रमश: (धीरे-धीरे) काय और कषाय का त्याग करने को संन्यास, सल्लेखना, समाधि या संथारा कहते हैं। जिसकी परिणति में श्रद्धा, ज्ञान में विवेक और आचरण में सत् क्रिया हो, उसे श्रावक कहते हैं। चतुर्थ ढाल में आठ छंदों द्वारा सम्यग्ज्ञान एवं उसकी महिमा का विवेचन किया गया है, तत्पश्चात् श्रावक के बारह व्रतों का वर्णन है।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
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