17
Jun
चौथी ढाल
ज्ञान की महिमा, ज्ञानी और अज्ञानी के कर्मनाश में अन्तर
कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान बिन कर्म झरैं जे।
ज्ञानी के छिनमाहिं, त्रिगुप्तितैं सहज टरैं ते।।
मुनिव्रत धार, अनन्त बार ग्रीवक उपजायो।
पै निज आतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायो।।5।।
अर्थ – मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्ज्ञान के बिना करोड़ों जन्मों तक तप करके जितने कर्मों का नाश करता है, उतने कर्मों का नाश सम्यक्ज्ञानी जीव अपने मन-वचन-काय के निरोधरूप गुप्तियों से क्षण मात्र में सहज ही कर लेता है। यह जीव द्रव्यलिंगी मुनि बनकर महाव्रतों का निरतिचार पालन कर अनन्त बार स्वर्ग में जाकर नवग्रैवेयक विमानों में उत्पन्न हुआ, परन्तु मिथ्यात्व के कारण आत्मा के भेदविज्ञान (सम्यक्ज्ञान या स्वानुभव) के अभाव में इसे लेश मात्र सुख नहीं प्राप्त हो सका।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
Give a Reply