21
Jun
चौथी ढाल
पुण्य-पाप में हर्ष-विषाद का निषेध
पुण्य-पाप फलमाहिं, हरख बिलखौ मत भाई।
यह पुद्गल परजाय, उपजि विनसैं फिर थाई।।
लाख बात की बात यहै, निश्चय उर लाओ।
तोरि सकलजग-दंद-कुंद, निज आतम ध्याओ।।9।।
अर्थ – आत्महितैषी जीव का यह कत्र्तव्य है कि वह धन-पुत्रादि की प्राप्ति में हर्ष और रोग-वियोग आदि होने पर विषाद न करें, क्योंकि ये पुण्य-पाप तो पुद्गलरूप कर्म की पर्याएँ हैं, जो एक के बाद एक उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं। सारे उपदेशों का सार यही है कि समस्त सांसारिक उलझनों/चिन्ताओं से नाता तोड़कर आत्मचिन्तन में प्रवृत्त होना चाहिए। विशेषार्थ-जो अशुभ गतियों एवं अशुभ प्रवृत्तियों से जीव की रक्षा करे, उसे पुण्य कहते हैं और जो शुभ गतियों एवं शुभ प्रवृत्तियों से जीव की रक्षा करे, उसे पाप कहते हैं।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
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