23
May
छहढाला
दूसरी ढाल
गृहीत-मिथ्याचारित्र का स्वरूप
जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविधविध देह दाह।
आतम अनात्म के ज्ञानहीन, जे जे करनी तन करन छीन।।14।।
अर्थ – जो यश,धन-सम्पत्ति,आदर-सत्कार आदि की इच्छा से या शरीर और आत्मा के ज्ञान बिना शरीर को क्षीण करने वाली अनेक प्रकार की क्रिया करता है उसे गृहित मुथ्याचारित्र कहते हैं ।
विशेषार्थ – जैसे तिल और बालू-रेत के लक्षण को न जानने वाले के द्वारा तेल के लिए बालू-रेत पेलने की क्रिया मिथ्या है, वैसे ही जीव और शरीर के भेद को जाने बिना जो-जो क्रियाएँ हैं, वे सब मिथ्याचारित्र हैं।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
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