15
May
दूसरी ढाल
अजीव एवं आस्रव तत्त्व का विपरीत श्रद्धान
तन उपजत अपनी उपज जान, तन नसत आपको नाश मान।
रागादि प्रगट ये दु:ख देन, तिनही को सेवत गिनत चैन।।5।।
अर्थ – मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादर्शन के प्रभाव से जीव के शरीर की उत्पत्ति को ही अपनी अर्थात आत्मा की उत्पत्ति मानता है और शरीर के नाश को आत्मा का नाश मानता है । राग-द्वेष आदि जो स्पष्ट रूप से आत्मा को दुख देने वाले है उन्हीं को सेवन करता हुआ यह जीव उनको सुख देने वाला मानता है।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
Please follow and like us:
Give a Reply