19
May
दूसरी ढाल
गृहीत-मिथ्यादर्शन और कुगुरु का स्वरूप
जो कुगुरु कुंददेव कुधर्म सेव, पोषे चिर दर्शन मोह एव।
अन्तर रागादिक धरैं जेह, बाहर धन अम्बर तैं सनेह।।9।।
अर्थ – जो कुगुरु, कुदेव, कुधर्म की सेवा करता है,वह चिरकाल तक दर्शन्मोह को ही पुष्ट करता है। जो भीतर में राग-द्वेष से सहीत हैं और ऊपर से धन,वस्त्र आदि से मोह रखते वह कुगुरु का स्वरुप है।[/vc_column_text][/vc_column][/vc_row]
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