पहली ढाल
ग्रन्थ रचना का उद्देश्य व जीव की चाह
जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहैं दु:खतैं भयवन्त ।
तातैं दु:खहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणा धार॥2।।
अर्थ – तीनों लोकों में जो अनन्त जीव हैं, वे सभी सुख चाहते हैं और दु:ख से डरते हैंं इसलिए आचार्य कृपा करके उन जीवों को दु:ख हरने वाली और सुख को देने वाली शिक्षा प्रदान करते हैं।
विशेषार्थ – ज्ञान, दर्शन अर्थात् जानने-देखने की शक्ति से युक्त द्रव्य को जीव कहते हैं। जो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान एवं मन:पर्ययज्ञान का विषय न हो, मात्र केवलज्ञान का विषय हो, उसे अनन्त कहते हैं अथवा जिसमें घंटे की ध्वनि सदृश व्यय निरन्तर होता रहे, आय कभी न हो, फिर भी राशि समाप्त न हो, उसे अनन्त कहते हैं। ‘‘संसार के सभी प्राणी सुखी रहें’’ आत्मा के इस सुकोमल भाव का नाम करुणा है। सम्यग्दृष्टि जीव का यह सुकोमल परिणाम शुभ राग है किन्तु मोह का कार्य कदापि नहीं है।[/vc_column_text][/vc_column_inner][/vc_row_inner][/vc_column][/vc_row]
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