सही नहीं है ,बल्कि चोरी का अर्थ विस्तार से समझना चाहिए । व्यक्ति खुद सीधे चोरी नहीं करता पर किसी ना किसी रूप में चोरी के निमित्त या कारण बन जाते हैं वह भी चोरी का हिस्सा ही है। बिना क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय के चोरी के भाव सम्भव नहीं। इन्हीं के कारण चोरी के निमित्त का जन्म होता है ।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में अचौर्यणुव्रत के अतिचार का स्वरूप बताते हुए कहा है कि …
चौरप्रयोगचौरार्थादानविलोपसदृशसन्मिश्राः । हीनाधिकविनिमानं, पञ्चास्तेये व्यतीपाताः ॥58॥
अर्थात- चौरप्रयोग- अन्य को चोरी के उपाय बताना या प्रोत्साहन देना, चौरार्थादान- चोरों के द्वारा चुराये गए माल धन को ग्रहण करना, विलोप- राजकीय नियमों का उल्लंघन करना, सदृशसन्मित्र-अधिक मूल्य की वस्तुओं में उसी के समान कम मूल्य की वस्तुओं को मिलाना और हीनाधिकविनिमान -नापने तौलने के मीटर, बांट आदि में खोट रखना। ये पाँच अचौर्य अणुव्रत के अतिचार हैं।
अचौर्यव्रत की रक्षा के लिए तत्त्वार्थसूत्रकार ने निम्नलिखित पाँच भावनाओं का वर्णन किया है।
शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्ष्यशुद्धि सधर्माविसंवादाः
पञ्च अर्थात् शून्या गारावास पर्वत की गुफाओं तथा वृक्ष की कोटरों आदि प्राकृतिक, शून्य स्थानों में निवास करना, विमोचितावास-राजा आदि के द्वारा छुड़वाये हुए उजड़े गृहों में निवास करना, परोपरोधाकरण अपने स्थान पर दूसरे के ठहर जाने पर रुकावट नहीं करना, भैक्ष्यशुद्धि-चरणानुयोग की पद्धति से भिक्षा की शुद्धि रखना और सधर्माविसंवाद सहधर्मी जन के साथ उपकरण आदि के प्रसंग को लेकर विसंवाद नहीं करना। इन पाँच कार्यों से अचौर्यव्रत की रक्षा होती है। मुनि इन भावनाओं का साक्षात् प्रवृत्ति रूप और गृहस्थ भावना रूप से पालन करते हैं ।
सही अर्थ में अचौर्याणुव्रत का अतिचार रहित पालन करने से आपस में मैत्री भाव का विस्तार है। चोरी का दोष भी नहीं लगता है, विश्वास बढ़ता है। पूरा विश्व एक परिवार की तरह दिखता है ।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 64 वां दिन)
शनिवार, 5 मार्च 2022, घाटोल
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