अनादिकाल से पृथ्वी क्षेत्र का समूचे ब्रह्मांड में धीरे-धीरे परिवर्तन होता रहता है और एक समय आता है कि पृथ्वी पूरी तरह नष्ट हो जाती है और पुनः धीरे-धीरे प्राकृतिक सौंदर्य लौटने लगता है। यह सब धर्म के अनुसार अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के परिवर्तन के कारण होता है। सुख, आयु, कषाय आदि जिसमें कम होती है, उसे अवसर्पिणी काल और जिसमें यह बढ़ती है, उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं। इन दोनों के बीच के संक्रमण काल में 96 दिन होते हैं। यह सृष्टि के नाश और रचना का मुख्य काल होता है। सात-सात दिन तक सात प्रकार की वर्षा होती है, जिनमें जहर, ठंडे पानी, धूम, धूल, पत्थर, अग्नि आदि की वर्षा भी शामिल होती है जिसके फलस्वरूप पूरी पृथ्वी नष्ट हो जाती है, सौंदर्य चला जाता है। इसके बाद प्राकृतिक सौंदर्य के लौटने के सात-सात दिन तक शीतल जल, अमृत, घी, दिव्य रस, दूध आदि की वर्षा होती है। इससे पृथ्वी हरी-भरी हो जाती है और चारों तरफ खुशी की लहर दौड़ पड़ती है। इस प्रकार 49 दिन तक कुवृष्टि और 49 दिन तक सुवृष्टि होती है । 49 दिन की सुवृष्टि का प्रारंभ श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी से होता है और वह भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तक होता है। उसके बाद जो 72 जोड़े मनुष्य और तिर्यंचों के देवों और विद्याधरों ने विजयार्थ पर्वत की गुफा में छिपाये थे उन्हें निकाला जाता है। वही जोड़े भाद्रपद शुक्ल पंचमी से 10 दिवसीय उत्सव मनाते हैं। उसे ही आज दशलक्षण पर्व के रूप में मनाया जाता है।
दशलक्षण पर्व त्रैकालिक पर्व (अनादि निधन) है। इस पर्व को मनाने के पीछे एक घटना है। यह घटना भी त्रैकालिक ( अनादि निधन) है। जब-जब काल परिवर्तन होता है तब तब यह घटना घटती है। काल का परिवर्तन त्रैकालिक ( अनादि काल) से होता आ रहा है। इसलिए दशलक्षण पर्व या अनादि पर्व कहते हैं।
—
31
Aug
Give a Reply