आज पाठशाला में बात करेंगे देशभूषण और कुलभूषण मुनिराज के धर्मोपदेश की। इन दोनांे मुनिराज ने अयोध्या में राम के परिवार आदि को उपदेश दिया था। यह उपदेश वनवास के बाद जब राम वापस अयोध्या आए थे तब दिया गया था। तो आओ जानते हैं कि क्या था उपदेश-
यह उपदेश का वर्णन जैन शास्त्र पद्मपुराण के पर्व पिच्यासी में आता है ।
मुनिराज ने कहा कि अणुधर्म और महाधर्म अर्थात अणुव्रत और महाव्रत ये दोनों मोक्ष के मार्ग हैं। इनमें से अणुधर्म तो परम्परा से मोक्ष का कारण है, पर महाधर्म साक्षात् हो कर मोक्ष का कारण कहा गया है। अणुधर्म महाविस्तार से सहित है तथा गृहस्थाश्रम में होता है और दूसरा जो महाधर्म है वह अत्यन्त कठिन है तथा महाशूर वीर निग्रन्थ साधुओं के लिए ही होता है। इस अनादि निधान संसार में लोभ से मोहित हुए प्राणी नरक आदि कुयोनियों में तीव्र दुःख पाते हैं। इस संसार में धर्म ही परम बन्धु है, धर्म ही महा हितकारी है। निर्मल दया जिसकी जड़ है उस धर्म का फल कहीं नहीं जा सकता। धर्म के समागम से प्राणी समस्त इष्ट वस्तुओं को प्राप्त कर सकता है। लोक में धर्म अत्यन्त पूज्य है। जो धर्म की भावना से सहित हैं, लोक में वही विद्वान् कहलाते हैं। जो धर्म दया मूलक है वही महा कल्याण का कारण है। संसार के अन्य अधम धर्मों में वह दया मूलक धर्म कभी भी विद्यमान नहीं रहा है अर्थात् उनसे वह भिन्न है। वह दया मूलक धर्म जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा प्रणीत परम दुर्लभ मार्ग में सदा विद्यमान रहता है और इसके द्वारा तीन लोक का अग्रभाग अर्थात् मोक्ष प्राप्त होता है। इस धर्म का उत्तम फल पाताल में धरणेन्द्र आदि, पृथ्वी पर चक्रवर्ती आदि और स्वर्ग में इन्द्र आदि भोेगतें हैं।
अनंत सागर
पाठशाला
22 मई2021, शनिवार
भीलूड़ा (राज.)
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