संसारी इच्छाओं की पूर्ति कभी भी पूरी नहीं की जा सकती है, क्योंकि इनका कोई अंत नही है । धर्म की भावना के साथ जीने वाले की इच्छाएं होती नहीं है, उसे सब कुछ सहजता से मिलता है। वह इच्छाओं पर ध्यान नहीं देता, बल्कि वह अपने मानव जीवन के शुभ कर्तव्यों पर ध्यान देता है । धर्म के फल को कोई रोक नहीं सकता है। यह भी अटूट सत्य है। एक क्षण से लगाकर अनंतकाल का सुख धर्म से ही मिलता है ।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है कि …
नवनिधिसप्तद्वयरत्नाधीशा:सर्वभूमिपतयश्चक्रम् ।
वर्तयितुं प्रभवन्ति, स्पष्टदृशः क्षत्रमौलिशेखरचरणाः ॥ 38 ॥
अर्थात- निर्मल सम्यग्दृष्टि जीव नव निधियाँ, चौदह रत्नों तथा क्षत्रिय राजाओं के मुकुटों सम्बन्धी कलगियों पर जिनके चरण हैं, ऐसे समस्त छह खण्डों के स्वामी होते हुए चक्र रत्न को चलाने के लिए समर्थ होते हैं। अर्थात् चक्रवर्ती होते हैं।
मनुष्यों में चक्रवर्ती का पद उत्कृष्ट पद कहलाता है और उसकी प्राप्ति भी सम्यग्दृष्टि जीव को ही होती है। चक्रवर्ती 1. काल, 2.महाकाल, 3. नैसर्प्य ,4. पाण्डुक, 5, पद्म, 6. माणव, 7. पिङ्ग, 8. शङ्ख और 9. सर्वरत्न इन नौ निधियों तथा 1. चक्र, 2. छव, 3. दण्ड, 4. असि, 5. मणि, 6, चर्म 7. काकिणी, 8 सेनापति, 9. गृहपति, 10. हाथी, 11. घोड़ा, 12. स्त्री, 13. सिलावट और 14 पुरोहित इन चौदह रत्नों का स्वामी होता है। छह खण्ड पृथ्वी का पति होता
है और बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उसके चरणों में मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हैं। ये अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के युग में बारह बारह होते हैं।
अनंत सागर
श्रावकाचार ( 44वां दिन)
रविवार, 13 फरवरी 2022, बांसवाड़ा
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