व्यक्ति जैसा कर्म करता है उसका फल उसे वैसा ही मिलता है यही हम वर्षों से धर्म ग्रंथों और संतों से सुनते आ रहे हैं। कर्म सिद्धांत की परिभाषा और उसके महत्त्व को सीधे सीधे समझना बहुत ही कठिन है। क्योंकि कर्म सिद्धांत मनोभावों और न्याय और अन्याय की क्रिया पर टिका हुआ है। मूलतः यह दोनों ही मन के विषय हैं। किसी के मन के भावों को समझना संसारिकता में प्रवृत्त आत्मा के लिए नामुमकिन है। लेकिन वास्तविकता में घटित कहानियों और प्राचीन घटनाओं से सरलता से इसे समझ सकते हैं। कर्म सिद्धांत इतना प्रभावशाली होता है की वह संत, महात्मा, पूण्य कर्म इत्यादि नहीं देखता है। जिसने जैसा किया है उसका फल उसे हर अवस्था में भोगना ही होता है। कर्म सिद्धांत के पास व्यवहारिकता नहीं है। कुछ ऐसे ही प्रसंग हिन्दू महाभारत में हमें पढ़ने को मिलते हैं जो कर्म के सिद्धांतो और उसके फल को भली-भांति समझाते हैं। यह दोनों घटनाएँ कर्म सिद्धांत को समझने के लिए बहुत सरल है।
जीवन में कर्म के प्रति कितनी सजगता होनी चाहिए इसे सटीक तरीके से समझने के लिए महाभारत काल की कुछ घटनाँए बेहद प्रासंगिक हैं। जब युद्ध समाप्त हुआ और भगवान श्री कृष्ण द्वारका वापस लौट आए। तब पटरानी रुकमणी जी उनके पास आई, और जिज्ञासा वश पूछा -“हे माधव, महायुद्ध में द्रोणाचार्य और भीष्म पितामाह जैसे महान, ज्ञानी, पुण्यशाली, शक्तिशाली योद्धाओं को युद्ध में छल से मारने में आप क्यों सहभागी हुए …???” उनकी महानता की कोई गरिमा नहीं .. ऐसे महाबलियों का कोई मूल्य नहीं … क्या यह अधर्म नहीं ..?? ? आप इस पाप में कैसे सहभागी हुए प्रभु ?..???” श्री कृष्ण ने कहा : “हे प्रिये उन दोनों की महानता और अच्छाई के बारे में कोई संदेह नहीं है। किन्तु दोनों ने अपने जीवन में “केवल एक पाप” किया था – जिसके कारण उनके जीवन की सभी पुण्य भलाई अच्छे गुण धूल गए।”रुकमणी जी : “वह कौनसा पाप था नाथ..??”श्री कृष्ण गंभीर होकर बोले: “हे देवी,दोनों ही उस भरी सभा में उपस्थित थे – जहाँ द्रौपदी के वस्त्रहरण का प्रयास हुआ , एक स्त्री की लाज पर अधर्मी हाथ उठे जहाँ … दोनों ही इस स्त्री जाति पर हुए अत्याचार और अधर्म को रोकने के लिए ‹सक्षम’ थे ..! किन्तु, वे दोनों चुपचाप ये अन्याय देखते रहे … जिसके कारण उनके जीवन के सभी पुण्य, भलाई कर्म और अच्छे गुण धूल गए..!!!” जो नेकी और अच्छाई एक स्त्री पर हो रहे अत्याचार को रोक न सकें उसका क्या मोल क्या अर्थ क्या … ??? यह एक पाप उन दोनों की श्रेष्ठताओं के नाश के लिए पर्याप्त था!” ….
रुकमणीजी :
“परंतु कर्ण का क्या दोष था …??? एक श्रेष्ठ मित्र महा पराक्रमी
एवं महादानेश्वर कर्ण का क्या दोष था ..??? अर्जुन को छोड़कर किसी भी पांडव
का वध न करने का वचन अपनी माता कुंती को दिया …!!! वचन पालन के लिए अपनी ढाल कवच
कुण्डल भी देव इंद्र को दे दिए …!!! ऐसी महान व्यक्ति को किस पाप ने मारा …????”
श्री कृष्ण: “महावीर अभिमन्यु सात
सात महयोद्धाओं से अकेले युद्ध कर जब गिर पड़ा … जब मृत्यु उसके के सामने खड़ी थी , वह परमवीर बालक का जीवन अंत के करीब था – तब उसने निकट ही खड़े कर्ण
से पीने के जल की आशा रखी …!!!
उसे विश्वास था की शत्रु होने के
पश्चात भी दानवीर कर्ण उसे पीने के लिए अवश्य जल देंगे।”
“किन्तु स्वयं अपने पास स्वच्छ जल
होते भी मरते बालक को जल नहीं दिया सिर्फ मित्र दुर्योधन नाराज़ ना हो इसी कारण।
वह वीर बालयोद्धा जल की तृष्णा में मृत्यु को प्राप्त हो गया।”हे रुकमणी, इस एक अमानवीय पाप ने कर्ण के दान करके प्राप्त किये सारे पुण्य को
नष्ट करने के लिए पर्याप्त था।”और प्रिये काल की भी गति देखो…..??? उसी जल के झरने से बने दलदल में
कर्ण का रथ का पहिया फंसा और उसकी मृत्यु का कारण बना …!!!” हे प्रिये …यही कर्म
का असली सिद्धांत है ..!! धर्म के विरुद्ध जा कर किसी के साथ किए गए अन्याय का केवल एक पल …
समस्त जीवन के पुण्य व प्रमाणिकता का एक अंत है .. !! आप को इन दोनों प्रसंगों को पढ़कर यह तो स्पष्ट समझ में आ गया होगा की
कर्म और उसका परिणाम छोटे-बड़े , गुरू-शिष्य अथवा पुण्यात्मा- पापी
को देखकर नहीं मिलता है। वरन् उसके अंदर सामर्थ्यता होने के उपरांत भी जब व्यक्ति
स्वयं के कषायों की दीवार को नहीं गिराता , तो धर्म की रक्षा नहीं करने वाले
को सज़ा मिलती अवश्य है।
अनंत सागर
कर्म सिद्धांत (दूसरा)
12 मई 2020, उदयपुर
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