मनुष्य आत्मिक शांति चाहता है। इसके लिए मन का शान्त होना अत्यंत आवश्यक है। मन की शांति के लिए मनुष्य के जीवन में अच्छे भाव होना जरूरी है। अच्छे भावों के बिना मानव जीवन मे जन्म की सफलता नही हैं। मनुष्य के अंदर प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव, हर्षभाव, करुणा भाव और माध्यस्थ भाव का होना नितांत आवश्यक है। इन चारों भावों के होने से प्राणि मात्र के प्रति, उनके कार्यो के प्रति, उनकी सोच के प्रति हमारे मन में सकारात्मक विचार आते है। इससे मन, मस्तिष्क शान्त रहता है। आस-पास का माहौल शान्त रहता है। हर मिलने वाला प्राणी सच्चा मित्र लगता है। हमारा व्यवहार, आचरण ऐसा हो जाता है कि हर मनुष्य के अंदर से हमारे लिए दुआ निकलती है।
अमितगति आचार्य ने द्वात्रिशिंका में कहा है कि
सत्त्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं।
माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव।।
अर्थात
भगवन् ! मेरी आत्मा हमेशा संपूर्ण जीवों में मैत्रीभाव, गुणीजनों में हर्षभाव, दुखी जीवों के प्रति दयाभाव और विपरीत व्यवहार करने वाले शत्रुओं के प्रति माध्यस्थभाव को धारण करे।
सत्वेषु मैत्री- संसार में जितने भी प्राणी है उनके प्रति मैत्री, प्रेम, वात्सलय का भाव रखो। कभी भी किसी से झगड़ा, द्वेष, मतभेद, मनभेद का भाव मत रखो। कभी हो भी जाए तो उसे सकारात्मक सोच के साथ निकाल दो। इस प्रकार की भावना रखने वाला मनुष्य महापुरुष होता और वही ”वसुधैव कुटुम्बकम् ‘ अर्थात् सारा भूमंडल-संसार ही मेरा कुटुम्ब है, ऐसी सूक्ति को चरितार्थ करता है।
गुणिषु प्रमोदं – ज्ञान, चारित्र, तप और व्यवहार कुशलता से कार्य करने की क्षमता रखने के गुणों में जो हमसे बड़े हंै, उन्हें देखकर मन में प्रेम का भाव उमड़ आना, उनकी सेवा करके मन प्रसन्न हो जाना। यही अच्छे मनुष्य के लक्षण है। इससे हमारे गुणों का विकास होता है।
क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं – दीन, दुखी, अनाथ या अंधे, लंगडे, लूले अथवा अज्ञानी, मूर्खजनों को देखकर उनके प्रति दया भाव से चित्त का ओतप्रोत हो जाना कारुण्य भाव है। तन से, मन से या धन से जहाँ तक बन सके उनका उपकार करना, भोजन कराना, औषधि देना, वस्त्रादि देना और जैसे बने वैसे उनको सुख-शांति पहुंचाना हमारा धर्म होना चाहिए।
विपरीतवृत्तौ माध्यस्थभावं- शत्रु जैसा कष्ट देने वालों के लिए यह सोचना कि यह सब कर्म का फल है। ये बेचारे निमित्त मात्र है, ऐसा विचार कर उनसे राग-द्वेष नही करना। उनके निमित्त से अपने मन में भी हर्ष-विषाद या क्लेश नहीं करना यही माध्यस्थ भाव है। इससे अपनी मानसिक शांति बनी रहती है और आगे के लिये वैर बंध नहीं होता है।
इन चारों भावनाओं को प्रतिदिन भाते रहने से एक न एक दिन अपने अंतरंग में आत्मिक शांति मिल जाती है।
अनंत सागर
अंतर्भाव
(तीसवां भाग)
20 नवम्बर, 2020, शुक्रवार, बांसवाड़ा
अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज
(शिष्य : आचार्य श्री अनुभव सागर जी)
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