मुनिपद में मुनियों के सामने बार-बार अनेक कष्ट आते रहते हैं। इसी तरह एक बार आचार्य श्री शांतिसागर महाराज चर्या के लिए निकले। एक श्रावक के घर पर विधि मिल गई और वह भोजनशाला में पहुंच गए। अंजुलि बांधकर वह आहार लेने के लिए तैयार हुए। उस समय महाराज गर्म दूध और चावल का आहार लेते थे। उसे श्रावक के यहां उबलता हुआ दूध रखा था। उस श्रावक ने तब दूध गर्म करके ही रखा रखा। वह तनिक भी ठंडा नहीं हुआ था। श्रावक ने कपड़े से दूधवाला बर्तन पकड़ा और महाराज की अंजुलि में डाल दिया। उसने यह नहीं सोचा कि मैं कपड़े से पकड़ कर डाल रहा हूं तो महाराज का हाथ भी जल सकता है। अब दूध गिरते ही महाराज को असहनीय पीड़ा हुई और वह मूर्छित हो गए। सभी लोग घबरा गए। श्रीनेमिसागर मुनि महाराज उस नेमण्णा नामक गृहस्थ के रूप में थे तो वह इसे महाराज के जीवन का अंतिम क्षण मानते हुए उनके कानों में जोर-जोर से पंचनमस्कार मंत्रराज का पाठ करने लगे। कुछ ही समय बाद महाराज श्री की मूर्छा दूर हो गई। उन्होंने आंखें खोल लीं। उस दिन उन्हें आहार का अंतराय हो गया, इसके बावजूद उनके भावों में शांति रही। क्रोध और क्षोभ का लेशमात्र भी अंश उनमें न था। उन्होंने उस श्रावक को भी तुरंत क्षमा कर दिया।
01
Jun
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