मुनि पूज्य सागर की डायरी से
मौन साधना का 42वां दिन। आज चिंतन में अनुभव भी हुआ और मैंने भी अनुभव किया कि अगर साधु बिना बाधा के अपने संयम की पालना करना चाहता है तो उसे गृहस्थ और गृहस्थ की बातों से दूर रहना चाहिए क्योंकि गृहस्थ अपना व्यवहार निभाने के चक्कर में साधु से भी विवाद, द्वेष कर जाते हैं। वह सही बात न तो समझना चाहते हैं और न ही बात करना चाहते हैं। और तो और, विनय करना तक भूल जाते हैं। गृहस्थ क्या- क्या बोल जाते हैं, उसे पता ही नहीं चलता है। न जाने किस- किस प्रकार के कषाय कर जाते हैं।
मेरा अपना अनुभव है कि इन सबके चलते साधु कितना भी साधक हो, पर उसके मन में नकारात्क सोच आ ही जाती है, कषाय जाग्रत हो जाता है। न तो सामायिक,न स्वाध्याय, न ध्यान और न ही किसी प्रकार के जाप में ध्यान लगता है। गृहस्थ और समाज साधु को अपने सोच अपनी परम्परा के अनुसार चलाना चाहता है, पर वह धर्म और साधु के अनुसार अपना गृहस्थ धर्म नहीं करना चाहता है। गृहस्थ के संपर्क से ही साधु के संयम में बाधाएं आती हैं। गृहस्थ के अशुभ कर्म का बन्ध तो होता ही है, पर साधु के भाव भी मलिन हो जाते हैं।
मुझे तो इस बात से पीड़ा पहुंचती है कि हमारे कारण एक गृहस्थ ने अपने जीवन में कषाय किया है। और न जाने उस कषाय से और कौन- कौन सा बन्ध किया है। यही सोचकर पीड़ा होती है। मुझे राजा श्रेणिक के जीवन की एक घटना याद आ जाती है कि मुनि से दोष के कारण गले में सर्प डाल दिया तो सातवें नरक की आयु बन्ध कर लिया। यह बात अलग है कि उसे अपनी किए पर पश्चाताप हुआ तो पहले नरक में गया। भगवान मेरे संयम, साधना का फल मुझे यही मिले ताकि मैं अपने कर्मों की निर्जरा कर सकूं और मेरे निमित्त किसी का अशुभ कर्म ना बंधे।
बुधवार, 15 सितम्बर, 2021 भीलूड़ा
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