अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज
विकास की मंशा से तीव्र गति से दौडते वर्तमान युग में चिरंतन भारतीय संस्कृति के संस्कारों पर पडा आघात आज का सबसे बडा चिंतनीय बिन्दु है। जैसे जैसे विकास की गति बढ रही है वैसे-वैसे हमारी नई पीढी का धर्म व अध्यात्म के प्रति श्रद्धा व विश्वास कम होता जा रहा है। इन स्थितियों में हमारे सामने सबसे बडी चुनौती इन नई युवा पीढी को संस्कारवान बनाना हो गया है। दुख की बात है कि हमारी वर्तमान पीढी सदियों से चली आ रहे हमारे पारम्परिक संस्कारों व संस्कृति को भलते जा रहे है । यह सब हमारे भविष्य के लिए कितना घात हो सकता है इसका अनुभव हमें अभी नहीं हो रहा है । कुछ प्रभाव तो हमें अभी दिखाई दे रहे हैं परंतु कुछेक को हम जानकर भी अंजान है। इन सबके पीछे की स्थितियों और इनके कारणों के बारे में हमें जानने की आवश्यकता है।
मूल्य व संस्कारहीन शिक्षा ः
धर्म-अध्यात्म से विमुख होती संस्कारहीन वर्तमान पीढी के पीछे एक बडी हद तक मूल्य और संस्कारहीन शिक्षा ही है। आधुनिकता की अंधी होड और पाश्चात्य सभ्यता का अनुसरण करती हमारी शिक्षा में संस्कारों की कमी हो रही है। विद्यालयों में अंग्रेजी के बढते प्रभुत्व के कारण बच्चों को भारतीय संस्कृति में निर्दिष्ट जीवन मूल्यों, संस्कारों और आदर्शों के बारे में उतना ज्ञान नहीं हो पाता जितना की हमारे ऋषि मुनियों द्वारा गुरूकुल शिक्षण पद्धति में दिए जाते थे।
गुरूकुल पद्धति ही एकमात्र उपायः
इस भौतिकवादी युग में बच्चों में संस्कारों और भारतीय संस्कृति के आदर्शों को डालने के लिए अब हमें क्या करना चाहिए, इस विषय पर चिंतन की आवश्यकता है। हमें वर्तमान युवा पीढी के सुखद भविष्य को देखते हुए संस्कारों और जीवन मूल्यों से युक्त शिक्षा प्रदान करने के साथ ही उसे धर्म व अध्यात्म के अनुगमाी बनाने की आवश्यकता अनुभूत की जा रही है।
हमें हमारे सांस्कृतिक महापुरुषों और उनके जीवन चरित्र के बारे में बताने की भी आवश्यकता है और इस पीढी को यह बताने की आवश्यकता है कि उन महापुरूषों ने इन्हीं संस्कारों व जीवनमूल्यों को अपने जीवन में उतार कर सफलता पाई थी और अपने जीवन को सार्थक साबित किया था।
हमें इस पीढी को यह भी बताना होगा कि पहले ईट पत्थरों की चारदिवारी से युक्त विद्यालयों में नहीं अपितु प्रकृति की गोद, पंच महाभूतों के बीच स्थित आश्रमों में शिक्षा का अभ्यास करवाया जाता था और जीवनमूल्यों की शिक्षा देते हुए सदाचरण और स्वावलम्बन का पाठ पढाया जाता था । पहले मन्दिर में भगवान के दर्शन से दिन की शुरुआत होती थी । आश्रम व गुरुकुलों में मन को निर्मल करने का पाठ सिखाया जाता था । घर में शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन, पठन-पाठन होता था। माताएं अपने बच्चे को महापुरुषो की कहानियां सुनाया करती थी।
सोंचे आज हमारे दिन की शुरुआत कहा से होती है व अंत कहा से होता है यह हर कोई जानता है। इन सब स्थितियों को हमारे अनुकूल बनाने के लए हमें गुरुकुल पद्धति के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करनी है और उन सांस्कृतिक आदर्शों व जीवन मूल्यों का अनुसरण करना है जिनके माध्यम से हम इस जीवन को सार्थक व सफल बना सकते हैं।
वर्तमान शिक्षा पद्धति और इसकी बुराईयों, इसके कारण धर्म व अध्यात्म से दूर हुई हमारी वर्तमान पीढी को पुनः उसी परम वैभव युक्त सांस्कृतिक शिक्षा देने के लिए हमने एक ऐसे गुरूकुल की स्थापना की है जो हमें उसी युग की ओर लौटाएगी जिसमें रहकर हमारे ऋषि मुनियों ने अपने जीवन को सार्थक किया था।
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