शुद्धोपयोग कहां कहां तक होता हैं? कौन से नरक तक देव उपदेश देने जा सकते हैं? आर्ष परम्परा में श्रावक और मुनि का क्या स्वरूप है? ऐसे कई प्रश्न जब साधु , श्रावक, विद्वत जगत में उठते है और जब कहीं से भी सही जवाब नही मिलता तो एक ही नाम सामने आता है…..गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माता जी। ज्ञानमती माताजी जैन धर्म की चलती फिरती एनसाइक्लोपीडिया हैं या आज के समय के हिसाब से कहंें तो वे जैन धर्म की गूगल है तो कोई आश्चर्य नही होगा, क्योंकि जैन धर्म के शास्त्रों, सिद्धांतों, जिनागम से जुड़ा ऐसा कोई प्रश्न नहीं है, जिसका उत्तर उनके पास नहीं हो। हर शंका, हर प्रश्न का समाधान माताजी के पास मिल जाता है। उनके साहस, हिम्मत, विचार शक्ति और आत्म शक्ति का कोई मुकाबला नहीं है।
माताजी ने लौकिक शिक्षा मात्र सिर्फ कक्षा चौथी तक प्राप्त की है, लेकिन वे संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी आदि भाषओं की विद्वान हैं। संस्कृत, प्राकृत आदि के कई ग्रंथों का अनुवाद, संस्कृत, प्राकृत में लेखन कार्य के साथ अनेक धार्मिक विषयों पर वे अब तक लगभग सैंकड़ों पुस्तकें लिख चुकी हैं। जिनागम और जैन साहित्य में उनके योगदान के लिए ही सन 1995 में माताजी को अवध विश्वविद्यालय फैजाबाद द्वारा डी .लिट् की उपाधि से विभूषित किया गया।
आर्यिका माता जी का जोर सैदव परम्परा और आर्षमार्ग की रक्षा तथा आने वाली पीढी में धार्मिक संस्कार बढ़ाने पर रहता है। उनके सारे कार्य इसी दिशा में होते हैं। माता जी आर्यिका दीक्षा के संयम में 64 साल पूरे कर चुकी हैं और उनकी साधना और तप के महातम्य का वर्णन नहीं किया जा सकता है। माताजी जी मार्गदर्शन में आदिनाथ भगवान की विश्व की सब से बड़ी प्रतिमा मांगीतुंगी (महाराष्ट् ) में निर्मित हुई। माता जी की प्रेरणा से ही तीर्थंकरों की जन्मस्थलियों के जीर्णोद्धार हो रहे हैं। माता जी कि प्रेरणा से विश्वशांति अहिंसा सम्मेलन का आयोजन हस्तिनापुर में किया गया जिसका उद्घाटन देश की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील द्वारा किया गया। देश में अलग अलग समय पर माता जी की प्रेरणा से जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति, समवसरण श्री विहार, महावीर ज्योति रथ भ्रमण हुआ।
भगवान आदिनाथ ने जैसे अपनी ब्राह्मी-सुंदरी दोनो बेटियों को अंक और अक्षर विद्या का ज्ञान दिया था लगता है वैसे ही आचार्य श्री वीर सागर जी महाराज ने अपना ज्ञान और आचरण आर्यिका ज्ञानमती माता जी और आर्यिका सुपार्श्वमती माता जी को दे दिया था।
माताजी का जन्म 22 अक्टूम्बर 1934 (शरद पूर्णिमा) को छोटेलाल -मोहिनी देवी जैन के यहां हुआ। वर्ष 1953 में आचार्य देशभूषण जी महाराज से आपने क्षुल्लिका दीक्षा ली और वीरमती नाम पाया। वर्ष 1956 में आचार्य श्री वीर सागर जी महाराज ने माताजी को माधोराजपुरा में आर्यिका दीक्षा दी और यहां उन्होंने आर्यिका ज्ञानमती नाम पाया। वर्ष 1989 में आपको गणिनी पद दिया गया।
आज आप को माता जी जीवन से परिचय करवाने का उद्देश्य यही है कि शरद पूर्णिमा पर माता जी का जन्म दिवस है। माता जी का 86वे वर्ष में प्रवेश हो गया है और यही प्रार्थना है कि भगवान जिनेन्द्र देव उनका आर्शीवाद हम सब पर हमेशा यूं ही बनाए रखें।
अनंत सागर
प्रेरणा
(छब्बीसवां भाग)
29 अक्टूबर, गुरुवार 2020, लोहारिया
अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज
(शिष्य : आचार्य श्री अनुभव सागर जी)
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