एक बार की बात है। चौथी कक्षा की एक छात्रा विद्यालय के गृहकार्य को पूरा नहीं कर पाई। जब वह विद्यालय जाती है तो सहपाठी को गृहकार्य न कर पाने के लिए अध्यापक की डांट खाते और पिटते देखती है। वह डर जाती है और शिक्षक से झूठ बोल देती है कि मैंने गृहकार्य तो पूरा किया है, लेकिन नोटबुक लाना भूल गई हूं। यह बात जब वह घर जाकर मां को बताती है तो मां उसे तीन दोस्तों- वसु, नारद और पर्वत की कहानी सुनाती है।
कालांतर में राजा वसु न्यायपूर्वक राज्य संचालन करते थे। उन्होंने अपने सिंहासन के नीचे के पाये स्फटिक मणि के बनवा रखे थे, जिससे देखने वाले सभी लोग यही समझते थे कि राजा का सिंहासन अधर में है। उसके पुण्य प्रताप से जनता में भी यही प्रसिद्धि हो गई थी कि राजा बहुत ही सत्यवादी हैं। इसलिए सत्य के बल से राजा का सिंहासन आकाश में अधर में टिका हुआ है।
वहीं, पर्वत बालकों को धर्माध्ययन कराने लगा। नारद भी गुरु से ज्ञान प्राप्त कर उनकी दीक्षा के बाद अन्यत्र चले गए थे। एक समय की बात है। नारद अपने सहपाठी गुरुपुत्र पर्वत से मिलने आए। उस समय पर्वत अपने शिष्यों को पढ़ा रहे थे। एक सूत्र वाक्य ‘अजैर्यष्टव्यम्’ का अर्थ उन्होंने समझाया कि अज अर्थात् बकरों से हवन करना चाहिए। यह सुन नारद ने कहा, नहीं मित्र! इस श्रुतिवाक्य का ऐसा अर्थ नहीं है।
नारद बोले- ‘अजैस्त्रिर्वािषवैर्धान्यैर्यष्टव्यम् अज’
अर्थात् तीन वर्ष पुराने चावल से हवन करना चाहिए।
इस पर पर्वत ने दुराग्रहवश कहा- नहीं, तुम्हारा अर्थ गलत है। असल में ‘अज’ का अर्थ बकरा ही है। यह विवाद अधिक बढ़ गया। कई लोगों तक यह बात पहुंची। उसके बाद कुछ प्रतिष्ठितजनों ने कहा कि क्यों न इसका निर्णय राजा वसु की सभा में किया जाए।
यह कहकर सभी चले गए। पर्वत ने घर आकर सारा वृतांत अपनी मांं से कह सुनाया। माता समझ रही थी कि पर्वत का कथन गलत है। फिर भी माता पुत्र की रक्षा और उसकी प्रतिष्ठा के लिए राजा वसु के पास पहुंंची।
वह बोली- पुत्र, तुम्हें याद होगा कि मेरा एक वर तुम्हारे पास धरोहर में है। इसलिए आज मैं वह वर चाहती हूंं। राजा वसु ने कहा- हांं! याद है माता। तुम जो चाहो, वह मांंग लो। तब माता ने कहा- पर्वत और नारद का किसी सूत्रार्थ पर झगड़ा हो गया है। उसके निर्णय के लिए आपको चुना गया है। अतः आप पर्वत के पक्ष का ही समर्थन कीजिए। राजा ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे वर दे दिया।
अगले दिन राजसभा में पर्वत और नारद राजा वसु केे पास आए। दोनों ने ‘अजैर्यष्टव्यम्’ का अपना-अपना अर्थ सुनाया और कहा कि आप ही इसका अर्थ बताइए। यद्यपि राजा वसु के स्मरण में तत्क्षण ही सही अर्थ आ गया कि तीन वर्ष के पुराने धान यानी चावल से हवन करना चाहिए। ऐसा गुरु जी ने अर्थ प्रतिपादित किया था। फिर भी उन्होंने गुरु माता को दिए वचन के निमित्त असत्य का पक्ष लेते हुए अपनी मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा का परवाह नहीं की। राजा वसु ने कहा- जो पर्वत कहता है, वही सत्य है।
यह कहते ही राजा वसु का सिंहासन धरती में धंसने लगा। यह देख नारद ने तथा सभा में बैठे प्रतिष्ठित लोगों ने कहा, राजन्! देख लो, इतने महाझूठ का फल, तुम्हारा सिंहासन पृथ्वी में धंसता जा रहा है। आप संभलिए और अभी भी सत्य बोल दीजिए। इतना कहने पर भी राजा वसु नहीं संभले। इस महापाप के फलरूवरूप उसी समय पृथ्वी फटती चली गई और राजा का सिंहासन उसमें धंसता चला गया। तब वह राजा मरकर सातवें नरक में चला गया। इस दुर्घटना से शहर में हाहाकार मच गया।
कहानी की सीख
इस कहानी से हमें सीख मिलती है कि असत्य कभी नहीं बोलना चाहिए और न ही झूठ का पक्ष लेना चाहिए। वह छात्रा समझ गई कि असत्यवादी लोग अपने गुरु, मित्र और बंधुओं के साथ भी विश्वासघात करके दुर्गति में चले जाते हैं। वहीं, सत्य बोलने वाले लोगों को वचन सिद्धि हो जाया करती है। इसलिए हमेशा सत्य धर्म का आदर करना चाहिए।
अनंत सागर
कहानी
पचासवां भाग
11 अप्रेल 2021, रविवार, भीलूड़ा (राजस्थान)
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