हम जो पढ़ते हैं वह जिसने लिखा है उस पर श्रद्धा होने के बाद उसे पढ़ने से कर्मो की निर्जरा होती है। जैन धर्म में श्रावकों के लिए स्वाध्याय करना अनिर्वाय कहा है। जैन धर्म के सिद्धांतो को समझने के लिए, सहज और सरल करने के लिए तीर्थंकर की वाणी को शास्त्र रूप में चार भागों में विभाजित किया गया है। रत्नकरणश्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र ने इनका स्वरूप बताया है।
आओ जानते है यह क्या हैं-
प्रथमानुयोग- जिसमें पुण्य को देने वाले महापुरुषों के चरित्र, पुराणों, बोधि-समाधि आदि की कहानी का वर्णन किया गया हो ,उसे प्रथमानुयोग ग्रन्थ कहते हैं। एक महापुरुष की कथा को चरित्र कहते हैं। अनेक महापुरुषों के चरित्र का जिसमें वर्णन होता है उसे पुराण कहते हैं। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति को बोधि और रत्नत्रय की रक्षा की ओर उत्तरोत्तर वृद्धि होना समाधि है।
करणानुयोग-जिसमें लोक और अलोक के विभाग, काल (समय) परिवर्तन और चारों गतियों का वर्णन दर्पण के समान किया गया हो, उसे करणानुयोग ग्रन्थ कहते हैं।
चरणानुयोग – जिसमें गृहस्थ धर्म और मुनि धर्म के चारित्र का वर्णन हो, जिसमें चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के बारे में वर्णन किया गया हो, उसे चरणानुयोग ग्रन्थ कहते हैं।
करणानुरोग- जिसमें जीव-अजीव, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष का वर्णन किया गया हो, उसे करणानुरोग ग्रन्थ कहते हैं।
अनंत सागर
श्रावक
छयालीसवां भाग
17 मार्च 2021, बुधवार, भीलूड़ा (राजस्थान)
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