अंतर्मुखी मुनि पूज्य सागर महाराज
ग्रंथ शब्द के कई अर्थ हैं, पर यहां ग्रंथ का अर्थ है गणधर के द्वारा रचा गया द्रव्यश्रुत अर्थात् जिसमें जैन ग्रंथ के सिद्धांतों और उसके इतिहास का वर्णन हो,उसे जैन ग्रन्थ कहते हैं। ग्रंथ को चार अनुयोग (भाग) में विभाजित किया गया है। वर्तमान (अवसर्पिणी) में काल में भगवान महावीर से लेकर अंतिम श्रुत केवली तक ग्रंथ (शास्त्र) रचना नहीं थी, सबको मुखी याद रहता था। महावीर भगवान की दिव्य ध्वनि को गणधर परमेष्ठी झेलते थे और उसे श्रावकों तक भेजते थे। भगवान महावीर का मोक्ष हो जाने के 683 वर्ष बाद आचार्य धरसेन ने अपने ज्ञान से जान लिया कि आने वाले समय में मौखिक ज्ञान नहीं रह पाएगा। ऐसे में उन्होंने धर्म के सूत्र को सुरक्षित रखने की ठानी और आचार्य धरसेनाचार्य ने निर्ग्रन्थ साधु श्रमण श्री पुष्पदंत सागर और श्रमण श्री भुतबली को पढ़ाया और अपना ज्ञान उन्हें दे दिया। तब श्रमण पुष्पदंत और श्रमण भुतबली ने सबसे पहले षट्खंडागम ग्रंथ के नाम से शास्त्र की रचना की और उसके बाद अनेक आचार्यों ने अनेक विषयों पर ग्रंथ लिखे। यहीं से द्रव्यश्रुत लिखने की परंपरा प्रारंभ हुई। इन्हीं ग्रंथों को चार अनुयोगों में विभाजित किया गया है। ये चार अनुयोग क्रमशः
प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग हैं। इन चार अनुयोग में अलग-अलग विषयों के बारे में लिखा गया है।
प्रथमानुयोग
प्रथमानुयोग मर्थाख्यानंग चरितं पुराणमपि पुण्यम् । बोधिसमाधि निधानं बोधित बोधः समीचीन ॥
जो शास्त्र परमार्थ की विषयभूत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ का कथन करने वाला है, एक पुरुष के आश्रित कथा को, त्रेसठ शलाका पुरुषों के चरित्र को तथा पुण्य के आस्रव करने वाली कथाओं को कहता है और बोधि, रत्नत्रय, समाधि-ध्यान का निदान कोष है, ऐसे प्रथमानुयोग रूप शास्त्रों का सम्यग्ज्ञान जानता है अर्थात् जिसमें चार पुरुषार्थ के साथ-साथ महापुरुषों के चरित्र का वर्णन हो, वह प्रथमानुयोग है। इसे पढ़ने से पुण्यास्त्रव, रत्नत्रय की प्राप्ति और समाधि की सिद्धि होती है।
करणानुयोग
लोका लोक विभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च । आदर्शमिव तथा मतिरवैति करणानुयोगं च ॥
लोक-अलोक के विभाग को, युगों के परिवर्तन द्वारा चारों गतियों को दर्पण सदृश्य ऐसे करणानुयोग को जानता है अर्थात् जिसमें लोक अलोक, युग परिवर्तन और चतुर्गति परिवर्तन का वर्णन है, अनुयोग से सम्पूर्ण विश्व का स्वरूप जान लिया जाता है।
चरणानुयोग
गृहमेघ्यनगाराणां चरित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षांगम् । चरणानुयोगसमयंग सम्यग्ज्ञानं विजानाति ॥
सम्यग्ज्ञान ही गृहस्थ और मुनियोग के चरित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के अंगभूत चरणानुयोग शास्त्र को जानता है अर्थात् जिसमें श्रावक और मुनिधर्म का वर्णन किया जाता है, वह चरणानुयोग कहलाता है।
द्रव्यानुयोग
जीवाजीवसुतत्त्वे, पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च । द्रव्यानुयोगदीपः, श्रुतविद्यालोकमातनुते ॥
द्रव्यानुयोगरूपी दीपक जीव-अजीव रूप सुतत्वों को, पुण्य-पाप और बंध मोक्ष को तथा भावरूपी प्रकाश को विस्तृत करता है अर्थात् जिसमें छहों द्रव्यों का, पुण्य-पाप और बंध-मोक्ष का विस्तृत वर्णन रहता है, वह द्रव्यानुयोग है।
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