श्रावक का कर्तव्य है कि वह जिनेन्द्र भगवान की भक्ति करे। भक्ति से ही मुक्ति सम्भव है। भक्ति के कई भेद स्वरूप हैं। जिनेंद्र भगवान के गुणों का गुणगान करना भक्ति है और बस इस परिभाषा में ही भक्ति के सभी भेद और स्वरूप आ जाते हैं। शर्त इतनी सी है कि वह भक्ति निस्वार्थ होनी चाहिए। अगर भक्ति में स्वार्थ छिपा हुआ है तो भक्ति का फल नहीं मिलता और ना ही भक्ति के माध्यम से अतिशय होता है। भक्ति का फल नहीं मिले और अतिशय नहीं हो तो समझना वह भक्ति थी ही नहीं। निस्वार्थ भक्ति ही हमें सुख दे सकती है। दुखों से दूर कर सकती है और हमारे अंदर आत्मविश्वास जागृत कर सकती है।
आज हम ऐसी ही एक कथा के माध्यम से भक्ति के फल को जानेंगे। प्राचीन समय की बात है धनंजय नाम के सेठ मंदिर में बैठ कर के जिनेंद्र भगवान की पूजा, आराधना, भक्ति कर रहे थे। उसी समय उसके घर से खबर आई कि उनके पुत्र को सर्प ने काट लिया और जिसके कारण बच्चें के शरीर में जहर फैलता जा रहा है। घर से कई बार धनंजय सेठ को समाचार दिए गए पर धनंजय सेठ अपनी भक्ति को अधूरा छोड़ कर घर नही गए। ऐसे में उनकी पत्नी को क्रोध आया और वह बच्चे को उठा कर मंदिर में लेकर आ गई। यहां पर धनंजय सेठ बैठकर भगवान की भक्ति कर रहे थे। पत्नी ने उनके सामने बच्चें को रख दिया और कहने लगी क्या तुम्हरी भक्ति बच्चें को मरने से बचा सकती है। सेठ ने कोई जवाब नही दिया और उसी समय विषापाहर स्स्तोत्र की रचना प्रारम्भ की। जैसे-जैसे धनंजय सेठ स्तोत्र पढ़ रहे थे वैसे- वैसे बच्चें का जहर उतरता गया और जैसे ही स्तोत्र संपूर्ण हुआ बच्चा निर्विष हो गया अर्थात शरीर का संपूर्ण जहर उतर गया।
तो इस प्राचीन सत्य घटना से हमें शिक्षा लेनी चाहिए कि जिनेन्द्र भगवान की भक्ति में अंनत शक्ति है। वर्तमान में हमारी भक्ति में कमी होने से अतिशय नही हो रहे हैं और ना ही भक्ति का फल मिल रहा है। इस कथा को पढ़कर प्रेरणा लेनी चाहिए कि जिनेन्द्र भगवान की भक्ति करते समय आस्था, श्रद्धा, विश्वास होना अत्यंत आवश्यक है। तभी भक्ति के माध्यम से अतिशय और कर्मो की निर्जरा सम्भव है।
अनंत सागर
श्रावक
(तीसवां भाग)
24 नवम्बर, 2020, बुधवार, बांसवाड़ा
‘जिनेन्द्र देव की भक्ति से ही मुक्ति सम्भव है’
अंतर्मुखी मुनि श्री पूज्य सागर जी महाराज
(शिष्य : आचार्य श्री अनुभव सागर जी)
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