आचार्य श्री शांतिसागर महाराज का दया पथ पर दृढ़ विश्वास था। वह जीवों की बलि या अन्य किसी भी कारण से उन्हें मारने के सख्त खिलाफ थे। उनका कहना था कि जीव वध बंद करने और पशुओं का बलिदान रोकने से पृथ्वी की ऊर्वरा शक्ति बढ़ेगी। इतना धान्य(अनाज) पैदा होगा कि लोग खा नहीं सकेंगे। दरअसल जीवों का जितना विनाश किया जाता है, उतना ही भूचाल, टिड्डीदल, अतिवृष्टि, अनावृष्टि जैसी विपत्तियां सामने आती हैं। उन्होंने कहा था कि अगर बारीकी से देखा जाए तो यह मालूम होगा कि भूचाल, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि के कारण वे प्रांत अधिक पीड़ित हुए हैं, जहां जीव-वध और अन्य क्रूरतापूर्ण कार्यों का नग्न-नृत्य होता है। बंदर आदि निरपराध शाकाहारी जीवों का वध करके जितना अनाज बचाया जाता है, उससे कहीं ज्यादा अनाज तो शासन की असावधानी से नष्ट हो जाता है, सड़ जाता है। खराब वितरण और संग्रहण प्रणाली उचित न होने के कारण भी बहुत सारा अनाज नष्ट हो जाता है। आचार्य श्री का कहना था कि जिन जीवों का प्रकृति की गोद में पोषण हो रहा था, उन निर्दोष जीवों की हत्या के लिए शासन ने कसाई की तरह काम किया और इसका परिणाम यह हुआ कि भूचाल, टिड्डीदल, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि प्राकृतिक अस्त्रों द्वारा ऐसी भीषण परिस्थिति पैदा हुई कि जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। सबसे बड़े आश्चर्य की बात है हिंसा वृद्धि के दुष्परिणाम सामने आने के बाद भी कभी शासन के मन में अहिंसा की आराधना करने का विचार तक उत्पन्न नहीं होता।
04
Jun
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