जीवन में सुख-दुख और उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। यह सब कर्मों का प्रतिफल है। मनुष्य ने जैसा कर्म बन्ध किया है, उसी अनुरूप उसे फल भोगना पड़ता है। कर्म का फल अमीर-गरीब, राजा-रंक, उम्र, संत-श्रावक या किसी भी तरह का भेद नहीं करता। मनुष्य का जन्म समृद्ध परिवार में हो सकता है, लेकिन मरण निर्धन के रूप में हो सकता है या जन्म गरीब परिवार में हो और जीवन का अंत वैभवशाली व्यक्तित्व के रूप में हो सकता है। इन सब स्थितियों में ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्राणी ना कुछ लेकर आता है, ना ही कुछ लेकर जाता है। अगर साथ आता है तो वह है कर्म और साथ भी सिर्फ कर्म ही जाते हैं। कर्मों के उदय से ही उसे फल मिलता है। हमारी इच्छाएं इसमें कोई मायने नहीं रखतीं।
यह संसार अनके सुखों और दुखों से मिश्रित हैं। सुखों की आकांक्षा रखना भी पाप बंध का कारण बनता है। सच्चा सुख सिर्फ निस्वार्थ भाव से की गई देव, शास्त्र एवं गुरू की आराधना में निहित है। धर्म की राह में बिना किसी फल की आशा से किया गया अनुष्ठान ही हमें मोक्ष मार्ग की ओर ले जाता है और यही भाव सम्यक दर्शन की प्राप्ति में सहायक होते हैं। जो इस प्रकार के भाव रखता है, वही सम्यक दृष्टि अपने सम्यक दर्शन के दूसरे गुण या अंग को सुरक्षित रखता है।
आचार्य समन्तभ्रद स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में सम्यक दर्शन के आठ गुणों में से दूसरे गुण नि:कांक्षित अंग का स्वरूप बताते हुए कहा है कि
कर्मपरवशे सान्ते, दुःखैरन्तरितोदये ।
पापबीजे सुखेऽनास्था, श्रद्धानाकाङ्क्षणा स्मृता ॥ 12॥
अर्थात – कर्मों के अधीन, अन्तसहित अनश्वर, दुःखों से अन्तर को प्राप्त उदय वाले अबाधित और पाप के कारणभूत इन्द्रियजनित सांसारिक सुख में आस्था नहीं होने रूप श्रद्धा आकांक्षा रहित निरूकांक्षित अंगरूप स्मरण की गई है।
कहने का अभिप्राय है कि सम्यक दृष्टि के लिए जरूरी है आकांक्षाओं से रहित होना। जब हम इच्छाओं के वशीभूत नहीं रहकर धर्म के मार्ग पर आगे बढ़ते हैं तो सम्यक दर्शन की राह आसान हो जाती है। संसार में इन्द्र, चक्रवर्ती आदि के सुख की प्रधानता है, परन्तु वह सुख भी उनके पास तब तक ही रहता है, जब तक उनकी अवधिपूर्ण नहीं हो जाती है। संसार के स्वरूप की वास्तविकता सम्यक दृष्टि ही समझ सकता है। सम्यग्दर्शन जिस मनुष्य के पास होता है, उसे ही सम्यक दृष्टि कहते हैं ।
अनंत सागर
श्रावकाचार (ग्याहरवाँ दिन)
मंगलवार , 11 जनवरी 2022, बांसवाड़ा
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