श्रवणबेलगोला मठ कब अस्तित्व में आया, इसके सम्बन्ध में स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलते। 12वीं सदी से लेकर 19वीं सदी तक के शिलालेखों में ‘चारुकीर्ति’ नाम पाकर उसके आगे देव, पंडित, आचार्य, मुनि, भठ, गुरु, पंडितदेव, पंडिताचार्य जैसे विशेषण धारण करने वाले इस मठ के मुनियों का वर्णन किया गया है। ‘चारुकीर्तिदेव’ हमें पहले पहल ई.स. 1131 के शिलालेखों में मिलता है। शांतला की मौत की खबर सुनकर उसकी मां माचकब्बे ने पंडितमरण स्वीकार कर लिया। उसकी खातिर संस्मारक शिलालेख की रचना करने वाले लिपिक बोकिमय्य मुनि के शिष्य थे। सन् 1131 से 1313 तक की कालावधि में चारुकीर्ति का उल्लेख नहीं लेकिन, इन्हीं मुनिश्री ने होयसल वीर बल्लाळ को महाव्याधि से विमुक्त करके ‘सारत्रय’ को घोषित किया। यह बात 14वीं सदी के शिलालेखों में से एक में उल्लेखित है। हम इससे अनुमान लगा सकते हैं कि ये मुनि 12-13वीं सदी की कालावधि में रहे होंगे। समझा जाता है कि उनका अभिनव पंडितदेव नाम का एक शिष्य था।
शुभचन्द्रयोगी के शिष्य तथा माघणंदिब्रतिप के गुरु चारुकीर्ति पंडित 14वीं सदी के आरम्भ काल में थे। बताया गया है कि इस सदी के अन्त में (ई.स.1398) आने वाले चारुकीर्ति, श्रुतकीर्तिदेव के बेटे ( शिष्य) थे। 18वीं सदी को छोडक़र बाकी सभी सदियों में चारुकीर्ति पंडिताचार्यों के उल्लेख एक न एक तरह से मिलते हैं। 14वीं सदी के अभिनव चारुकीर्ति पंडिताचार्य की शिष्या मांगायि ने त्रिभुवन चूड़ामणि (मांगायि) बसदि बनवाई। 16वीं सदी के चारुकीर्ति भट्टारक को अनुयायी (गुड्ड) मारगावे के नागप्पसेट्टि ने उनके पद चिह्नोंं का उत्कीर्णन अखंड बागिलु जाने वाले सोपान के पश्चिम में करवाया। यह जानकर कि बेलगोल मठ की जायदाद गिरवी में थी, मैसूर के तत्कालीन राजा चामराज ओडेयार ने ई.सं.1634 में चारुकीर्ति-पंडितदेव की उपस्थिति में उसे छुड़वा दिया। चारुकीर्ति पंडितदेव से प्रेरित होकर 1648 में मुळ्ळनायक ने बड़े पहाड़ पर चौबीस तीर्थंकर बसदी बनवाई। प्रतीत होता है कि 17वीं सदी में बेळगोळ आने वाले जिनभक्त गुम्मटस्वामी के प्रति जितनी भक्ति रखते थे, उतनी ही भक्ति चारुकीर्ति मुनि की निषिधि के प्रति भी रखते थे। उनमें से बेळगांव का नरससठि (नरस सेट्टि) उल्लेखनीय है। 19वीं सदी के आरम्भ में रहने वाले अजितकीर्तिदेव चारुकीर्ति पंडितदेव के प्रिय शिष्य थे। इन्होंने एक महीनेभर के निराहार व्रत के बाद भद्रबाहु गुफा में देहत्याग किया। वर्ष 1856 में रहनेवाले सन्मतिसागर वर्णी गुरु चारुकीर्ति के शिष्य थे। इन्होंने भंडार बसदि के श्रीविहार उत्सव के लिए अनंतनाथ जिन की लोह-मूर्ति बनवाई। इसके अलावा इस मुनि के अनुयायी (गुड्ड-गुड्डति ) कुंभकोण के सतण्णश्रेष्ठि, धरणेंद्रश्रेष्ठि तथा नेक्का ने क्रमानुसार नेमिनाथ, अनंतनाथ और चन्द्रप्रभजिन की लोह-मूर्तियों को प्रतिष्ठित किया।
यद्यपि 1858 के पश्चात् शिलालेखों में चारुकीर्ति मुनियों का उल्लेख जारी नहीं रहा तो भी यह मुनि-परम्परा चलती आ रही है। चारुकीर्ति मुनि वर्ष 1981 के मस्तकाभिषेक तथा गोम्मट मूर्ति प्रतिष्ठान के सहस्र वर्ष समारंभ की प्रेरक शक्ति थे। इसके साथ ही बेलगोल के धार्मिक क्षेत्र में नए अध्याय का आरम्भ हुआ।
वर्तमान भट्टारक चारुकीर्ति स्वामी जी महावीर जयन्ती पर 1970 में पदासीन हुए। उसके बाद स्वामी जी के मार्गदर्शन में श्रणवबेलगोल दिगम्बर जैन ज्ञान प्रचारक संघ की स्थापना हुई। जिसके अन्तर्गत अम्बिका प्री प्राइमरी एवं प्राइमरी स्कूल, श्रीमती श्रेयालम्मा नेमीराजय्या हाईस्कूल, श्रेयालम्मा नेमीराजय्या प्री.यूनिवर्सिटी कॉलेज, श्री बाहुबली पॉलिटेक्निक, बाहुबली इंजीनियरिंग कॉलेज, बाहुबली स्कूल ऑफ नर्सिंग, अम्बिका इंग्लिश मीडियम हाईस्कूल आदि की स्थापना की है। प्राकृत भाषा की पारम्परिक, धार्मिक शिक्षा एवं अध्ययन के लिए श्रुतकेवली एजुकेशनल ट्रस्ट के अन्तर्गत गोम्मटेश्वर विद्यापीठ, ब्रह्मचर्य आश्रम खोला गया है।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ प्राकृत स्टडीज एवं रिसर्च सेंटर, जैन श्रावक वृद्ध आश्रम की स्थापना भी की गई है। प्राकृत वन भी बनाया गया है। प्राकृतभाषा का प्रशिक्षण भी दिया जाता है। प्राकृतभाषा और साहित्य के अध्ययन, अनुसंधान को पुरस्कृत करने के लिए ज्ञान भारती प्रशस्ति पुरस्कार प्रारम्भ किया गया है। जैन साहित्य संस्कृत के संवर्धन में उल्लेखनीय योगदान देने वाले विद्वानों को प्रोत्साहन देने के लिए 1980 से प्रतिवर्ष ‘गोम्मटेश पुरस्कार’ प्रदान किया जा रहा है। सांस्कृतिक क्षेत्र में विशेष कार्य करने वाले गणमान्य व्यक्तियों को 1998 से प्रतिवर्ष गोम्मटेश्वर विद्यापीठ सांस्कृतिक पुरस्कार देकर सम्मानित किया जा रहा है।
सन् 1981 से स्वामीजी के सान्निध्य में कर्नाटक सरकार और केन्द्र शासन से सहयोग प्राप्त कर महामस्तकाभिषेक समारोह अत्यधिक सफलता के साथ सम्पन्न हुए। हर साल जैन कन्नड़ साहित्य सम्मेलन सम्पन्न होता है। कन्नड़ साहित्य में उल्लेखनीय कार्य के लिए चामुंडराय प्रशस्ति से सम्मानित किया जाता है। अतिथिगृह, धर्मशाला निर्माण, आयुर्वेदिक अस्पताल, वैद्यकीय परीक्षा प्रयोगशाला, एक्स-रे घटक, ग्रामीण जनता की सुविधा के लिए संचारी (मोबाइल)अस्पताल, अति-आधुनिक सुविधाओंं से युक्त नेत्र अस्पताल आदि महत्वपूर्ण लोकोपयोगी कार्य उनके मार्गदर्शन में सम्पन्न हो रहे हैं। वर्ष1988 में इंगलैण्ड के लीसेस्टर शहर में भगवान बाहुबली की 7 फीट ऊंची प्रतिमा का स्वामी जी के मार्गदर्शन में प्रतिस्थापन हुआ। प्रतिवर्ष अहिंसा धर्म सम्मेलन होता है। सन् 2001 में ‘चन्द्रगिरि चिक्क बेट्टा’ महोत्सव सम्पन्न हुआ। 108 ग्रंथों के प्रकाशन की ‘अक्षर कलश’ योजना प्रगति पर है। वर्ष 2006 में बाहुबली शिशु चिकित्सालय की स्थापना हुई। इसके बाद 2017 , वर्तमान में प्राकृत विश्वविद्यालय का काम प्रगति पर है।
क्षेत्र का राजकीय संरक्षण
इस श्रवणबेलगोला की पावना का प्रभाव ही मानना पड़ेगा कि जैन और जैनेतर जन-समुदाय की श्रद्धा और भक्ति के साथ-साथ सदैव उसे राजकीय संरक्षण भी प्राप्त रहा है। तलकाड के गंगनरेशों की अनेक पीढिय़ों द्वारा प्रदत्त बहुविध योगदाने के लिए इस क्षेत्र को इतिहास सर्वाधिक कृतज्ञ है। हलेबीड के होयसलों के संरक्षण में क्षेत्र का पश्चात्वर्ती उत्कर्ष के बावजूद श्रवणबेलगोला की स्थिति यथावत् सुरक्षित बनी रही। इसी प्रकार मैसूर का वाडियार राजवंश भी अपने स्थापना काल से ही गोम्मटस्वामी का भक्त और श्रवणबेलगोला का संरक्षक रहा है।
सोलहवीं शताब्दी के अंत में अनेक कारणों से क्षेत्र की स्थिति खराब हो गई। सन् 1611 में मैसूर महाराजा कृष्णराजा वाडियार (प्रथम) ने क्षेत्र की व्यवस्था के लिए राज्यकोष से आर्थिक अनुदान देना प्रारंभ किया, परंतु उससे परिस्थिति में सुधार नहीं आया। सन् 1630 ईस्वी के आस-पास क्षेत्र को गहरे आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। पूरा क्षेत्र सूदखोर महाजनों के पास बंधक हो गया। उन्हीं दिनों चन्नपट्टन के तेलगुराजा जगदेव की द्वेष बुद्धि के कारण मठ के समक्ष बाधाएं आने लगीं। निरीह भट्टारक चारुकीर्ति पंडित इन प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना नहीं कर पाएं और मठ छोडऱ भट्टातकीपुर के भैरवराज के आश्रय में, गेरूसोप्पे में रहने लगे। संभवत: इसी विषमकाल में षट्खण्डागम आदि सिद्धांत-ग्रंथों की दुर्लभ ताड़पत्रीय प्रतियां यहां से ले जाकर मूडबिद्री के भंडार में स्थापित की गई होंगी।
सन् 1634 ई. में महाराज चामराज वाडियार ने स्वयं श्रवणबेलगोला आकर गोम्मटस्वामी के दर्शन किए। क्षेत्र की दशा पर अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए भट्टारकजी को वापस बुलाकर मठ की पुन: स्थापना कराई। राजा ने राजकोष से ऋण की राशि का भुगतान करके क्षेत्र को मुक्त कराने का आदेश दिया, पर राजकोप के भय से सभी महाजनों ने स्वत: क्षेत्र को ऋण मुक्त करके, गोम्मटेश्वर भगवान् की साक्षी में सारे ऋण-पत्रक भट्टारकजी को सौंप दिए। मैसूर नरेश ने देव-स्थानों पर ऐसे ऋण और ब्याज के लेन-देन को निन्द्य, अवैध और पाप का काम बताते हुए एक अभिलेख में यह आशय घोषित किया कि ‘भविष्य’ में जो ऐसा करेगा, वह काशी और रामेश्वर तीर्थों पर सहस्त्र गौओं और ब्राह्मणों की हत्या के पाप का भागी होगा।
शब्दों का उपयोग क्यों
जगत्गुरु
जगत्गुरु शब्द धर्मगुरु के अर्थ में प्रयुक्त शब्द है। यह कर्नाटक की सांस्कृतिक परंपरा है और प्राय: सभी मठाधीशों जैनेतरों पर भी लागू है। जैन भट्टारकों को जगत्गुरु इसलिए कहा जाने लगा ताकि वे अन्य संप्रदायों के मठाधीशों की तुलना में कम न बैठें। इसके साथ सार्वभौम गौरव की भावना जुड़ी हुई है।
कर्मयोगी
कर्मयोगी संबोधन 1981 की देन है। चारुकीर्ति, भट्टारक आदि भट्टारकों के लिए भी प्रयुक्त है। अत: कोई भेद रेखा, कोई स्वतंत्र पहचान आवश्यक थी। वर्ष 1981 के महामस्तकाभिषेक में समाज ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा जी द्वारा यह उपाधि श्रवणबेलगोला के भट्टारक को प्रदान की।
स्वस्तिश्री
स्वस्तिश्री उस व्यक्ति का संबोधन हो सकता है, जो प्राणीमात्र के कल्याण में संपूर्ण अप्रमत्तता से प्रतिपल समर्पित है। जो कदम-कदम पर दूसरों के सम्मान का ध्यान रखता है, जो स्वस्ति संपन्न है और दूसरों की शोभाश्री का अनुक्षण खयाल रखता है, वही व्यक्ति स्वस्तिश्री कहलाने के योग्य है।
भट्टारक
भट्टारक शब्द अपने निर्वचन में बड़ा भव्य है। जो धर्म-मार्ग के प्रेरक थे, वे भट्टारक कहलाए-धर्ममार्गे आरक: प्रेरक: इति भट्टारक:। भट्टारक मूलत: धर्म के प्रामाणिक/ आधिकारिक व्याख्याकार थे। उनका दर्जा न्यायाधीश जैसा था। वे विद्वान थे। मुनि परंपरा के लोप के उपरांत उनकी जिम्मेदारी बढ़ गई। आचार्य शांतिसागर जी महाराज के साथ मुनि परंपरा पुनर्जीवित हुई। जब मुनि-परंपरा सशक्त/ सार्थक होती है, तब प्राय: भट्टारकों की आवश्यकता नहीं पड़ती। हां, दिगंबर मुनि विदेश नहीं जा सकते, ऐसे में भट्टारकों की भूमिका बनती है।
चारुकीर्ति
श्रवणबेलगोला के भट्टारक का दीक्षा पूर्व नाम चंद्रकीर्ति था। उसके बाद चारुकीर्ति हुआ। यह होयसल राजवंश की देन है, राजकीय सम्मान है। भट्टारकों के विरुद के रूप में यह 12वीं शताब्दी में जुड़ा। यह नाम रखना परंपरा है। फिर भी कीर्ति की चारुता और निष्कलंकता का ध्यान तो रखना ही होता है।
स्वामी
स्वामी शब्द दक्षिण का आंचलिक शब्द है। पहले नाम लेकर पुकारने की परंपरा नहीं थी। यह संबोधन सामान्यत: काम में आता था। यह आदर/ सम्मानसूचक संबोधन है।
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